Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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आत्मा अपने आत्मा शुद्ध स्वरूपको प्रगट करने में लग जाता है । उस समय यह अपने आत्मा के स्वरूपको निराकार समझने लगता है, निरामध अर्थात् रोगादिक समस्त विकारोंसे रहित समझने लगता है । निर्द्वन्द अर्थात् समस्त संकल्प - विकल्पोंसे रहित समझने लगता है । और शुद्ध चैतन्य - - स्वरूप तथा अनन्त - सुखमय समझने लगता है । इस प्रकार समझकर यह शुद्ध आत्मा उसी अपने शुद्ध चिदानन्दमय, निराकर आत्माका ध्यान करने लगता है। इस प्रकार ध्यान करता हुआ वह आत्मा पहले तो घातिया कर्मोंको नष्ट करता है। फिर अन्तमें समस्त कर्मोंको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मोक्ष प्राप्त करनेके लिए यह जीव पुण्य-पाप दोनोंका त्याग कर देता है। क्योंकि दोनोंके त्याग कर देनेसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
प्रश्न
स्वात्मविमुखजन्तोश्च किं चिन्हं विद्यते वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा कीजिए कि अपने आत्मासे विमुख रहनेवाले जीवके क्या क्या चिन्ह मिलते हैं ?
उत्तर - पंचाक्षपोषणरतः खलकांमदग्धो,
धर्मार्थमोक्षविमुखः परवस्तुमग्नः । स्वाचारसौख्यचलितोऽखिलपापपिण्डो, दुर्मार्गपक्षपरिपोषणधीरवीरः ॥ ११३ ॥ सत्यार्थपक्षपरिपालनशक्तिहीनः, थर्मोक्षमार्गपरि रोधनदत्तचित्तः । पूर्वोक्तदोष सहितो हतधर्मकर्मा, प्रोक्तः
अर्थ- जो पुरुष पांचों इन्द्रियोंके पालन-पोषण करनेमें तल्लीन रहता है, जो दुष्ट कामदेवसे सदा जलता रहता है, धर्म, अर्थ, और मोक्ष पुरुषार्थ से सदा विमुख रहता है, आत्मासे सर्वथा भिन्न रहनेवाले पुद्गलादिक पदार्थोंमें ही निमग्न रहता है, अपने आत्मामें लीन रहनेरूप सुख से सदा चलायमान रहता है, जो समस्त पापोंका पिंड कहलाता है, जो कुमार्ग पक्षको पुष्ट करनेके लिये सदा धीर-वीर रहता है, यथार्थ
[: खलः परमुखी स च रंगामी ।। ११४ ।।