Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु ।
भावार्थ- यह आत्मा अनन्त कालसे इंद्रियोंके विषयों में लग रहा है, तथा उन इंद्रियोंके विषयोंके लिए अनेक प्रकार के कुकर्म करता चला आ रहा है, तथापि वह आजतक कमी तप्त नहीं हुआ। उन कुकर्माके कारण अनंतबार सिंहादिक क्रूर पशु हुआ, और न जाने कितनीबार निगोद गया, इन इंद्रियों के विषयोंके कारण इस आत्माने अनंतकाल नक घोर दुःस्व सहन किए, तथापि किसी भी इन्द्रियके विषयमे आजतक तृप्त नहीं हुआ, तथा अनंतकाल और बीत जानेपरभी तृप्त नहीं हो सकता । यदि यह आत्मा तृप्त हो सकता है, तो आत्मजन्य अनंत सुखसे तृप्त हो सकता है। आजतक अनंत जीव इसीसे तृप्त हुए हैं, और आगेभी इमी आत्मजन्य अनंतसुखसे अनंतानंत जीव तृप्त होते रहेंगे। यह आत्मजन्य अनंत सुख इस जीवने न तो आजतक प्राप्त किया, न प्राप्त करने का प्रयत्न किया और न कभी आजतक देखा । इसलिए हे आत्मन् ! अब तू इन इंद्रियों के विषयोका सर्वथा त्याग कर, और आत्माको सुख देनेवाले आत्माके स्वभावको प्राप्त करनेका प्रयत्न कर। आत्माका स्वभाव प्राप्त होनेसेही इस जीव को अनतमुखकी प्राप्ति होती है।
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प्रश्न- यदा साधुनिजे तिष्ठेत्तदान्यं दृश्यते न वा ?
अर्थ- हे भगवन् अब कृपाकर यह बतलाइए कि जब यह साधु अपनं आत्मामें लीन होता है तब अन्य पदार्थों को देखता है, वा नहीं ! उ.- शुद्धचिद्रूपधाम्न्येव चित्तेन्द्रियाधगोचरे ।
सर्वकर्मक्रियादूरे यवा साधुः प्रतिष्ठति ।। २१८ ॥ तवातिशुद्धचिगुपं समन्ताद दृश्यते यथा । पदध्यानं क्रियते तद्धि स्वप्नेपि दृश्यते सदा ॥ २१९ ॥
अर्थ- यह शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा इंद्रिय और मनके अगोचर है, तथा समस्त क्रियाकर्म आदिसे रहित है । ऐसे शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मामें जब यह साध लीन हो जाता है, तब वह चारोंओरसे अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माकोही देखता है। उस समय वह और कुछ नहीं देख सकता । जैसे कि ध्यान करनेवाला मनुष्य जिस पदार्थका ध्यान करता है उसी पदार्थको वह स्वप्न में भी देखा करता है।