Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
भावार्थ - इस संसार में प्रायः यह देखा जाता है, कि यह मनुष्य दिनभर जिसके ध्यानमें लगा रहता है, उसीको स्वप्न में देखता है, उसका मन उस पदार्थ में लीन हो जाता है, और इसीलिए उसके मनमें उस पदार्थका संस्कार जम जाता है। उन्हीं संस्कारोंके जम जानेसे स्वप्न में भी उसके मनमें वे ही पदार्थ चक्कर लगाया करते हैं । इमी प्रकार जब यह साधु अपने इंद्रिय और मनके अन्य समस्त व्यापारांका त्याग कर अपने शुद्ध आत्मामें लीन हो जाता है, उस शुद्ध आत्माका ध्यान करता है, और शुद्ध आत्मस्वरूप हो जाता है, उस समय वह केवल उस शुद्ध आत्माको देखता है। उस समय इंद्रियों का व्यापार बंद हो जानेसे, वह न तो अन्य किसी पदार्थको देख सकता है. और न अन्य किसी पदार्थको जान सकता है। उस समय उसको सित्राय अपने शुद्धआत्माके और न कुछ दिखाई देता है, और न कुछ जाना जाता है. इसीको एकाग्रचित्त निरोध वा ध्यान कहते हैं। अपने चित्तको अन्य समस्त चितवन से हटा कर, किसी एक मुख्य पदार्थ में लगा देना एकाग्रचित्त निरोध कहलाता है, इसीको ध्यान कहते हैं । जब यह आत्मा अपने मनको वा अपने आत्माको अपनेही शुद्ध आत्मामें लगा देता है, तत्र अन्य समस्त पदार्थोंके चितवनका त्याग अपनेआप हो जाता है, और वह फिर किसी भी पदार्थको देख वा जान नहीं सकता। केवल अपनेही आमाको देखता है, और अपनेही आत्माको जानता है, अतएव भन्द जीवोंकोभी मोक्ष सुख प्राप्त करनेके लिए समस्त इंद्रियोंके विषयोंका त्याग कर ऐसे ही ध्यान करनेका प्रयत्न करना चाहिए ।
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प्रश्न - स्वभावः कीदृशो जन्तोर्गतिर्वा कीदृशी वद ?
अर्थ - हे स्वामिन्! अव यह बतलाए कि इस जीवनका स्वभाव और गति कैसी है ?
उत्तर - अयमात्मा यवा यत्र चिन्तयति किमप्यहो ।
तदा तत्र प्रयात्येव तन्मयतां स्वभावतः ॥ २२० ॥ ततो वांच्छितवः कार्यो भक्त्या साधुसमागमः । यतः परति त्यक्त्वा स्वात्मात्मनि रतो भवेत् ॥ २२१॥