Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
किस प्रकार निश्चल रक्खा जाता है, और ध्यानमें क्या-क्या क्रियाएं करनी पडती है, यह सब जान लेता है । तद्नंतर वह समयानुसार ध्यान करनेकी रीति, ध्यानके विषय, मनको एकाग्र करनेके साधन आदि ध्यानके समस्त विषयोंको पूछ-पूछकर जान लेता है । तदनंतर यह उनके साथ ध्यान करने लगता है, और धीर पुरुपोंके साथ रहकर धीरता धारण कर लेता है, और ध्यानी बन जाता है । इमी प्रकार यह मनुष्य बीर पुरुषों के साथ रहकर धीरता धारण कर लेता है । यह सब संसर्ग और संस्कारोंका फल है । जिस प्रकार किसी खानिमें से नियमानसार पत्थर निकालते हैं, नियमानुसार उसकी मूर्ति बनाते हैं, और फिर उसमें देव होनेवाले सब संस्कार करते हैं । यद्यपि वह खानिसे निकला पत्थर देव नहीं था, मूर्ति बननेपरभी वह देव नहीं था, किंतु उसपर देबके संस्कार हो जानेसे वह देव हो जाता है, और देवके समानही पूज्य माना जाता है। जिस प्रकार खानिमेंसे निकला हुआ हीरा अंगूठी में जड़ने योग्य नहीं होता, और न उतना मूल्यवान होता है, किंतु शाणपर रखकर जब उसका संस्कार किया जाता है, तब वह बहुत अधिक मूल्यवान हो जाता है, और अंगूठी में जडने योग्य हो जाता है यदि मिट्टीके घडेका अग्नि संस्कार न किया जाय, तो उससे जल धारण ( उसमें जल भरना ) आदि कोई भी क्रिया नहीं कर सकते । अग्नि संस्कारके होनेपरही उससे जलधारण आदि क्रिया हो सकती है। इस संसारमें संस्कारोंका वा संसर्गका अपूर्व महात्म्य है । यही समझकर प्रत्येक भव्य जीवको अपना योग्य संसर्ग रखना चाहिए और योग्य संस्कारपूर्वक रहना चाहिए, जिससे कि यह जीव आत्माके श्रेष्ठ गुणोंको धारण कर, शीघ्रही मोक्ष प्राप्त कर ले ।
प्रश्न - धर्मेंविना धन जीवाः लभन्ते मे न वा प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि ये जीव विना धर्म के धन प्राप्त कर सकते हैं वा नहीं ? उ. वृष्टिर्न दृष्टास्ति यिना हि मेघव॒क्षो न दृष्टश्च विना सुबीजेः 'छाया न दृष्टास्ति बिना सुछत्रैःपुत्रो न दृष्टो जनविना हि ॥
न जन्म दृष्टं मरनविना च कीतिर्न वृष्टा वर विद्यया को। । शान्तिर्न दृष्टास्ति बिना विवेकःपौ न दृष्टश्च विना सुतैलेः॥