Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( यान्तिसुधा सिन्धु )
दोषोंकोही ग्रहण करनेवाला समझना चाहिए। दोषोंको ग्रहण करना मनुष्यता की योग्यताके बाहर है । इसीलिए गुणोंकी स्तुति करना और गुणोंको ग्रहण करना मनुष्यता के योग्य हैं । इसीप्रकार अपने गुणोंकी प्रशंसा करनाभी मनुष्यता के बाहर है । इसलिए अपने गुणों की प्रशंसा न करना, वा अपने गुणोंकी निंदा करना, मनुष्यताका योग्य कर्तव्य है, अपने दोषों को देखनेके लिए जो शत्रुका काम करता है, अर्थात् जिसप्रकार हमारा शत्रु हमारे दोषों को देखा करता है, उसीप्रकार जो स्वयं अपने दोषों को देखा करता है, और फिर उनको नष्ट करनेका प्रयत्न करता है, वही मनुष्यजन्म के कर्तव्यको पालन करता है । इसीप्रकार जो पुरुष दूसरोंके दोष देखने में ज्ञानी बन जाता है, अर्थात् ज्ञानी पुरुष जिसप्रकार दूसरोंके दोषोंको देखता हुआ भी न देखनेके समान बन जाता है, उसी प्रकार जो मनुष्य दूसरोंके दोषोंको देखता हुआ भी नहीं देखने के समान आचरण करता है, वह मनुष्य अवश्यही मनुष्यजन्मके योग्य माना जाता है। इसीप्रकार जो पुरुष भगवान् अरहंत देवकीही पूजा करता है, उनके कहे हुए शास्त्रही आत्माका कल्याण करनेवाला समझता हैं, और वीतराग निग्रंथ गुरुकोही अपना गुरु मानकर उनकी सेवा - भक्ति करता है, वही पुरुष अपना मनुष्यजन्मका कर्तव्य पालन करता है, तथा जो पुरुष संतोष और शांतिकेही स्थान में रहता है, अन्य कलवों स्थानोंको सर्वथा त्याग देता है, अथवा जो आत्माके शुद्ध स्वरूप में ही निवास करता है, वही मनुष्य, मनुष्यजन्मके कर्तव्यको पालन करता है। इसलिए ऊपर लिखे कर्तव्यको पालन करनेवाले मनुष्यही मनुष्यजन्मको प्राप्त करने के अधिकारी माने जाते हैं । अतएव भव्यजीवको इनका पालन अवश्य करते रहना चाहिए। जो पुरुष इनका पालन नहीं करता वह पशुओं के समान आत्मज्ञानमे सर्वथा रहित कहलाता है ।
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प्रश्न- कथं स्यात्स्वात्मतृप्त्यादिः वद मे शमंद भों?
अर्थ- हे कल्याण करनेवाले स्वामिन् ! अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि आत्माकी तृप्ति वा शुद्धि किस प्रकार हो सकती हैं ? उत्तर - स्वरसपानतस्तृप्तिर्न तु दुग्धादिपानतः ।
लोभत्यागेन शुद्धिः स्यान्न तु स्नानेन केवलम् ॥ ३९१॥
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