Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 364
________________ अथ प्रशस्ति आगे आचार्यवर्य श्रीकुंथूसागरजी महाराज अपनी लघुता दिखलाते हुए तथा गुरुजनोंको स्मरण करते हुए अपनी प्रशस्ति लिखते हैंदीक्षागुरोरेव दयानिधमें श्रीशांतिसिंधोश्व कृपाप्रसादात् । अज्ञानहर्तुः सुमतिप्रदातुः विद्यागुरोरेव सुधर्मनाम्नः ।। ५२१ ।। ग्रंथो हि नाम्ना वरशान्तिसिंधुरशान्तिहर्ता सुखशान्तिदाता ॥ स्वजन्ममृत्योश्च तथा परेषां विनाशहेतोविविधव्यथानाम्॥ ५२२ शान्त्या बिना सर्वविधिर्वृथेति प्रबोधनार्थं सकलप्रजानाम् । श्रीकुंथुनाम्ना रचितः प्रशान्तेमंत्रत्मनिष्ठेन च सूरिणा हि ॥५२३ अर्थ-- अपनी आत्मामें लीन रहनेवाले और परम शांति के स्वामी ऐसे आचार्यवर्य श्रीकुंथूसागर स्वामीने अपने दीक्षागुरु, दयाके निधि आचार्यवर्य श्रीशांतिसागरकी कृपासे तथा अज्ञानको हरण करनेवाले और श्रेष्ठ - बुद्धिको देनेवाले विद्यागुरु आचार्यवर्य श्री सुवसागरकी कृपाप्रसादसे, इस सर्वोत्तम शांतिसिंधू ग्रंथ की रचना की है। यह शांतिसिध्रु ग्रंथ अशांतिको दूर करनेवाला है, तथा परम सुख और परम शांतिको देनेवाला है । इस संसार में शांतिके बिना व्रत विधान आदि करना सबव्यर्थ है । यह बात समस्त प्रजाको समझानेके लिए, तथा अनेक प्रकारकी व्यथाओंका नाश करनेके लिएही इस शांतिसिंधु महाग्रंथ की रचना की है । काव्यं ह्यलंकारमपीह छन्दो न्यायं नयं व्याकरणं न वेद्मि । तथापि भक्त्या भवनाशकोहि ग्रंथो मयायं लिखितः पवित्रः ॥ ― अर्थ- मैं न तो काव्यग्रंथोंको जानता हूं, न अलंकारशास्त्र जानता हूं, न छन्दशास्त्र जानता हूं, न न्यायशास्त्र जानता हूं, न नयोंका स्वरूप जानता हूँ, और न व्याकरणशास्त्रको जानता हूं । तथापि मेने ( आचार्यवर्य श्री कुंधुसागरने ) भक्तिकेवश होकरही यह जन्म-मरणरूप संसार को नाश करनेवाला अत्यन्त पवित्र ऐसे इस शांतिसिंधुग्रंथ की रचना की है। विरुद्धानुचितं किंचिद् ग्रंथेस्मिन लिखितं यदि । शोधयित्वा मुनीन्द्रास्ते पठन्तु पाठयन्तु वै । ५२५ ।। अर्थ - यदि मैंने किसी प्रमादके वशसे इस ग्रंथ में कुछ विरुद्ध वा अनुचित लिखा हो तो मुनिराजोंको वह शोधकरही पढना चाहिए । अर्हन् जयतु तद्वाणी जिनधर्मश्च शर्मदः । पूर्वाचार्यः सुधर्मो मे शान्तिसिंधुगुरुः सदा ॥ ५२६ ॥

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