Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
• कीदृशं मन्यते सौख्यं धनबंधुसुतोद्भवम् ?
प्रश्न-
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अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि धन, भाई, बंधु, वा पुत्रादिकों से उत्पन्न होनेवाला सुख कौनसा सुख माना जाता है ? उ.- राज्योभयं नाकभवं नरोत्थं संन्योद्भवं कामपिशाचजातम् ।
आदौ प्रियं प्राणहरं फलांते क्षोद्भवं बंधुकलत्रजातम् ॥४३८ सत्यार्थशांतेश्च विनाशकत्वात् पुत्रोद्भव सांख्यमपीह दुःखम् । तत्त्वार्थवेदीति सुमन्यमानः सच्छान्तिहेतोर्यतते प्रवीरः ॥ ४३९ ॥ सच्छान्तिहीनस्य पराश्रितस्य सर्वं वृथा त्यागविधेविधानम् । यथा ह्यनुष्ठानमपीह सर्व विज्ञानदीनस्य भुनेर्वृथा स्यात् ४४०
अर्थ - इस संसार में चाहे राज्यसे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे मनुष्यपर्याय में उत्पन्न होनेवाले मुख हो, चाहे सेनासे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे कामदेवरूपी पिशाच्चसे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, चाहे भाई, बंधु, वा स्त्री, आदिसे उत्पन्न होनेवाले सुख हो, और चाहे पुत्रपौत्र आदिसे उत्पन्न होनेवाले सुख हों। ये सब प्रकारके सुख पहले तो अच्छे जान पड़ते हैं, परंतु अन्त में ये सब सुख प्राणोंका नाश करनेवाले हैं, और आत्मासे उत्पन्न होनेवाले यथार्थ शांतिका नाश करनेवाले हैं। इसलिए यथार्थं तत्त्वोंको जानेवाले, यथार्थ शूर वीर महापुरुष इन सब सुखोंको दुःखही मानते हैं, और इसीलिए वे महापुरुष, आत्मासे उत्पन्न होनेवाले परम शांतिको प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न करते रहते हैं । जिस प्रकार आत्मज्ञानसेरहित मुनियोंके लिए ध्यान तपश्चरण आदि सव अनुष्ठान व्यर्थ हो जाते हैं, उसी प्रकार जिस पुरुषके हृदय में परम शांति प्राप्त नहीं होती, और जो इन्द्रियोंके वा घर- -गृहस्थीकेही सदा आधीन रहता है, उसके त्याग करनेकी वा विधि व्यर्थं समझी जाती है ।
भावार्थ- संसारके जितने सुख हैं वे सब पराधीन है, और अन्तमें दु:ख देनेवाले है | जिसप्रकार कुत्ता हड्डी चाटता है, हड्डी चाटते समय उसके मुख से जो रुधिर निकलता है, उसीको वह हड्डीसे उत्पन्न होनेवाला रुधिर मानकर, उसके चाटने में सुख मानता है । वास्तव में देखा जाय तो