Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
(शान्तिसुधासिन्धु )
व्याधियोंसे रहित है, समस्त दुःखोंसे रहित है, शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, निर्विकार है, शूल है, अज है निर्मच है, बीधराम है, अलस्वरूप है, समता और शांतिसे सुशोभित है, और समस्त - विकल्पों को नष्ट करनेवाला है, ऐसा यह मेरा आत्मा अपनी परम शांति प्राप्त करनेके लिए अपनेही आत्माकेद्वारा चितवन किया जाता है ।
३४८
भावार्थ- यह अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूपका चितवन है | आत्माक शुद्ध स्वरूपका चितवन करनेसे सब संकल्प - विकल्प नष्ट हो जाते हैं । सब दुःख दूर हो जाते हैं, और सब विकार नष्ट हो जाते हैं। आत्माका शुद्ध स्वरूप कर्मोंसे रहित है, और इसलिए समस्त रोगादिकोंसे रहित है । ऐसे आत्माका चितवन करनेसे आत्मामें परम शांति प्राप्त होती है, तथा यह अत्यंत निर्मल होकर समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है, और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतएव प्रत्येक भव्यजीवको अपने आत्मामें परम शांति प्राप्त करनेके लिए अपने शुद्ध स्वरूप आत्माका चितवन अवश्य करते रहना चाहिए।
आगे और भी कहते हैं
कर्मणा त्रिविधेनात्मा मुक्तो मे ज्ञानभास्करः । निराकारी निराहारो निरंजनो निराकृतिः ॥ ५०० ॥ शुद्धचिद्रूपमूर्तिश्च स्वात्मसाम्राज्यनायकः । भव्यैः शान्त्यर्थमेवापि चिन्त्यः सदेति चेतसि ।। ५०१ ।।
अर्थ - यह मेरा आत्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म, और नोकर्म इन तीनों कर्मों से रहित है, समस्त तत्त्वों के यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करने के लिए ज्ञानमय सूर्य है, निराहार है, निरंजन है, किसी विशेष आकृतिको धारण नहीं करता, केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप मूर्तिको धारण करता है, और अपने शुद्धस्वरूप साम्राज्यका स्वामी हूं। ऐसा यह आत्मा समस्त भव्यजीवोंको अपने हृदयमें अनन्त शांति प्राप्त करने के लिए सदाकाल चितवन करते रहना चाहिए ।
भावार्थ - यह आत्मा द्रव्यकर्मो से भी रहित है, भावकर्मोंसे भी रहिन है, और नोकम भी रहित है । यद्यपि संसारी आत्मामें तीनों प्रकारक
}