Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधामि ।
करने के लिए और आत्मशांती रस्त्रनेके लिए, उन दोनोंमें समता धारण की जाती है। इसीप्रकार हर्ष वा विषादसे उत्पन्न होनेवाली आकुलताको दूर करनेके लिए, घर वा बन दोनोंमें समता धारण की जाती है, सुख-सुःस्त्र दोनोंमें समता धारण की जाती है, प्रिय का अप्रिय दोनों पदार्थोमें समता धारण की जाती है, मान-अपमानमें, वा रोग और स्वास्थ्य में, बा जल-स्थलमें, भोगोपभोगोंमें वा अन्य समस्त इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समता धारण की जाती है । इस समताको धारण करनेसे आकुलता नष्ट हो जाती है, और आत्मामें परमशांति प्राप्त हो जाती है । यदि इस समताको धारण करनेसेभी शांति प्राप्त न हो तो, समझना चाहिए कि वह समता मिथ्या है, और बगुलाके ध्यानके समान मायाचारीसे भरी हुई है। अतएव ऐसी मायाचारीका त्याग कर, भव्यपुरुषोंको समस्त इष्टानिष्ट पदार्थों में समता धारण कर, अपने आत्मामें परम गांनि धारण करनी चाहिए, मोक्षसुख प्राप्त करनेका यही सर्वोत्तम उपाय है ।
प्रश्न- स्वात्मतत्त्वविचारस्य किं प्रयोजनं प्रभो बद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि मुनि लोग जो आत्मतत्त्वका विचार करते हैं वह किस लिए करते हैं ? उ.-स्वात्मैव चानन्दमयं सुदृक् स्यात् स्वात्मैव शुद्धः प्रबलः प्रबोधः।
स्वात्मैव सौख्यं परमार्थदृष्टया स्वात्मव वीर्य सुखदं च वृत्तम्।। व्यक्तोपि गुप्तः कथितः प्रमाणात् सुखप्रदो चात्मन एव धर्मः। शान्त्यर्थमेवं क्रियते विचारः स्यात्तद्विना मूर्खनवद् व्यथावः ।।
अर्थ – यदि परमार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो यह मेरा आत्माही चिदानन्दमय सम्यग्दर्शन है, यही आत्मा अत्यंत शुद्ध अनन्तज्ञान है, यही आत्मा अनन्तसूख है, यही आत्मा अनन्तवीर्य है, यही आत्मा मुख देनेबाला सम्यक्चारित्र है, और यही आत्मा सुख देनेवाला आत्माका शुद्ध स्वरूप है । ऐसा यह आत्मा व्यक्त होता हुआभी गुप्तरूपसे रहता है, और प्रमाणसे उसका स्वरूप कहा जाता है। इसप्रकारके विचार केबल शांति के लिएही किए जाते हैं। यदि ऐसे विचार होते हुएभी शाति प्राप्त न हो, तो फिर उन विचारोंको मूर्ख मनुष्य के समान दुःख देनेवालाही समझना चाहिए ।