Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 326
________________ (शान्तिसुधा सिन्धु ) करना चाहिए | तदनंतर गंधोदकसे, फिर कोणकलशोंसे, और सबसे अन्तमें पूर्ण कलश से अभिषेक करना चाहिए । यदि एक्सआठ कलशोंसे अभिषेक करना हो तो कोणकलशों के पहले, एकसौंआठ कलशोंमे अभिषेक कर लेना चाहिए। एकसआठ कलशोंका स्थापन ऊपर लिखे यंत्रके समान करना चाहिए। ३२५ इनमें चारों कोणोंके चार कलश, कोणकलश माने जाते हैं, और मध्यका कलश पूर्णकलश माना जाता है । पंचामृताभिषेक करते समय अथवा एकसीआठ, वा एकहजार आठ कलशोंका अभिषेक करनेपर उस अभिषेकको देखने के लिए हजारों लोग इकट्ठे होते हैं, तथा अभिषेक होतेही सब लोग जयजयकार करते हुए अत्यंत प्रफुल्लित और आनन्दित होते हैं । इसप्रकार हजारों मनुष्य एक साथ पुण्य सम्पादन करते हुए अपने आत्मामें शांति बना लेते हैं । जो लोग ऐसे अभिषेक महापुण्यका सम्पादन नहीं करते, वा अपने आत्मामें शांति प्राप्त नहीं करते, उन्हें भाग्यहीन, वा अज्ञानी समझना चाहिए | अतएव पंचामृताभिषेक करना, आत्माका परम कल्याण करनेवाला है, और भगवान् जिनेन्द्रदेवकी भक्तिका प्रवाह बढानेवाला है । भगवान् जिनेन्द्रदेव के भक्तिका अपार महिमा है । भगवान् जिनेन्द्रदेवकी भक्ति, आचार्यवर्य श्रीसमन्तभद्रके समान अद्भुत महात्म्यको प्रगट करनेवाली, और तीर्थंकर नामकर्म तकका बंध करनेवाली होती है । अतएव प्रत्येक भव्यजीवको भगवान् जिनेन्द्रदेवकी मूर्तिका पंचामृताभिषेक करना चाहिए, और सैकड़ों-हजारों मनुष्योंको पुण्यका सम्पादन कराना चाहिए । जिनपूजनमें पंचामृताभिषेक करना मुख्य पूजन है । और प्रत्येक भव्यजीव के लिए प्रतिदिनका कर्त्तव्य है। श्री पूज्यपाद आदि अनेक आचार्योंने पंचामृताभिषेक पाठ निरूपण किए हैं, तथा सब मचाने इसकी पुष्टि की है । इसलिए यह शास्त्रोक्त मार्ग है । जो इसका खंडन करता है, वह शास्त्रोंका खंडन करता है, और महापाप उत्पन्न करता है । यही समझकर प्रत्येक भव्यपुरुषको यह महाभिषेक प्रतिदिन करना चाहिए। संकडों वा हजारों मनुष्योंके लिए शांति प्राप्त करने और आत्म कल्याण करने का यह सर्वोत्कृष्ट और सरल मार्ग है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365