Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
छल-कपट करने पड़ते हैं। कूटनीतिका बर्तन करना पडता है, और न जाने कितने जीवोंका विध्वंस करना पडता है। जिसप्रकार कोई एक मनुष्य वा राजा साम्राज्यकी इच्छा करता है, उसी प्रकार अन्य लोग वा अन्य राजाभी साम्राज्यको इच्छा करते हैं । ऐसी अवस्था में वे सब परस्पर एक दूसरेके शत्रु बन जाते हैं । उसमेंसे प्रत्येक मनुष्य वा राजा दूसरोंको मारना चाहता है, दूसरोंका देश छीनना चाहता है, और दूसरों की प्रजाको लूटना चाहता है । इसप्रकार साम्राज्यके लोभसे हानी भी बहुत अधिक होती है। कभी-कभी ऐसे राजाकी प्रजाभी बहुत दुःखी हो जाती है, और फिर बह अनेक प्रकार के उपद्रव मचाती रहती है, तथा कभी-कभी वह प्रजा उस राजाको सिंहासन से उतार देती है, बा मार देती है. इन सब झंझटों से उसके परिणाम कभी निराकुल नहीं हो सकते। इसलिए वह पुरुष न तो कभी धर्मसेवन कर सकता है, न अपने आचार-विचार श्रेष्ठ रख सकता है, न कभी आत्मतत्त्वकी चर्चा कर सकता है, और न अन्य कोई भी पारमार्थिक कार्य कर सकता है। इसप्रकार वह आत्माका कल्याण कभी नहीं कर सकता । अतएव इन सब बातोंको समझ कर साम्राज्यकी लिप्साका त्याग कर देना चाहिए, और मुनिलोग जिसप्रकार बिना अपने किसी स्वार्थ के समस्त संसारका कल्याण चाहते हैं उसी प्रकार राजाओं को भी बिना किसी स्वार्थ के समस्त संसार के कल्याणकी इच्छा करनी चाहिए। मनुष्यपर्याय पा करके अपना आत्मकल्याण कर लेना राजाओंका परम कर्तव्य है । यह राज्यका लोभही नरकका कारण है, इसलिए इसका त्याग कर देना और जिनदीक्षा लेकर ध्यान तपश्चरण कर आत्मकल्याण कर लेना प्रत्येक भव्यजीवका कर्त्तव्य है ।
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प्रश्न - भ्रमन्ति के भवारण्ये वद में सिद्ध गुरो ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब मेरे आत्माकी सिद्धि के लिए कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसाररूपी महासागर में कौन-कौन जीव परिभ्रमण करते है ?
उ.
धर्माधर्म न ये ज्ञात्वा वस्तुयाथात्म्यलक्षणम् । स्वस्वधर्मप्रचारार्थं यतन्ते केवलं शठाः ॥ ४०५ ॥ तद्दोषाते भवारण्ये भ्रमत्याचन्द्रतारकम् । धर्माधर्मं ततो ज्ञात्वा गृहन्तु सिद्ध्ये सदा ॥ ४०६ ॥