Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
सदाकाल प्रयल करता रहता है। वह आत्मा अपने आत्माको कभी दुखी नहीं देखना चाहता। इसके सिवाय यह आत्मा अपने आत्माको मोभसुख प्राप्त करनेके लिए वा मोक्षका अनंतसुख प्राप्त करनेके लिए अपनेही आत्माकेद्वारा अपनेही आत्मामें प्रयत्न करता रहता है, और प्रयत्न करते-करते उस अनंत सुख को प्राप्त कर लेता है। इसलिएभी यह आत्मा अपने आत्माको सुख देनेके कारण विष्णु कहलाता हैं। अतएव परमार्थदष्टिसे देखा जाय तो यह आत्माही ब्रह्मा है, यही आत्मा विष्णु है, और यही आत्मा महादेव है । इसलिए यह आत्माही बंदनीय और पूज्य माना जाता है।
प्रदन - उपादेयो भवेत्स्वामिन् को हेयो वद मे भबि ? ___ अर्थ-है स्वामिन् ! अब कृयाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि इस मंसार में उपादेय अर्थात ग्रहण करने योग्य क्या है और हेय अर्थात त्याग करने योग्य क्या है ? उ. दृग्बोधचारित्रमयो ममात्मा ध्यानादिगम्यो व्यवहारतः सः। चिन्मात्रमूर्तिः परमार्थतश्योपादेय एवास्ति ततः समन्तात् ॥ तदन्यएवास्ति ततः पदार्थः सर्वोपि हेयश्चिदचित्स्वभावो । स्वानन्दसाम्राज्यपदे स्थितस्य यथास्ति हेयश्च परप्रदेशः ४१३
अर्थ – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्रसे सुशोभित होनेवाला यह मेरा आत्माही मेरे लिए उपादेय है । यह रत्नत्रयसे सुशोभित होनेवाला मेरा आत्मा ध्यानादिके द्वारा जाना जाता है, और व्यवहार दृष्टिसे चैतन्यस्वरूप है। ऐसा यह मेरा आत्मा परमार्थ दष्टिसे सब ओरसे उपादेय है, तथा जिसप्रकार अपने आत्मजन्य आनंदके साम्राज्य सिंहासनपर विराजमान होनेवाले आत्माके लिए अन्य समस्त प्रदेश हेय गिने जाते हैं, उसी प्रकार उम रत्नत्रयम्प मेरे आत्मासे भिन्न जितने चैतन्य बाजडरूप पदार्थ हैं, वे सब हेय गिने जाते हैं।
भावार्थ-- इस आत्माको यथार्थ अनंत सुखकी प्राप्ति मोक्ष अवस्था में होती है, मोक्ष अवस्थामें केवल रत्नत्रय स्वरूप आत्माही रहता है,