Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु)
.......-...----.........-....-. जितनेभी पुण्यकार्य किए जाय, उन सबमें मन-वचन-काय तीनोंही लगना चाहिए, क्योंकि जहाँपर मन-वचन-काय तीनोंही किसी पुण्यकार्य में लग जाते हैं, वहांपर निराकुलता आती है, और निराकुलता आनेसे शांति प्राप्त हो जाती है ।
प्रश्न- पंचाक्षरोधहेतुः को वद मे भगवन् प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन् ! हे प्रभो ! अब कृपाकर मेरे लिए पांचोइंद्रियोंका निरोध करनेका हेतु बतलाइए ? उ. शान्त्यर्थमेव क्रियते प्रमोदात् पंचाक्षरोधः सुखदः सदैव । मानापमानोपि विमुच्यते च भयंकरः क्रोधचतुष्टयादिः॥४२२ एतत्प्रकुर्वन्नपि नैव शान्तिश्चेतस्य लोके विफलः प्रयत्नः । सुनीतिहीनस्य यथा नृपस्य ज्ञात्वेति शान्तिहृदि धारणीया॥
अर्थ- इस संसार में जो सदाकाल मुख देनेवाले पांचोंइंद्रियोंवा निरोध किया जाता है, वह आत्मामें गांति प्राप्त करनेके लिएही किया जाता है, और हर्षपूर्वक किया जाता है । इसके सिवाय मान-अपमानका त्याग कर दिया जाता है। और क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों भयंकर कषायोंका त्याग कर दिया जाता है । यदि इन सब कार्योको करते हुए भी शांति प्राप्त न हो तो, जिसप्रकार श्रेष्ठ नीतिको पालन न करनेवाले राजाका सन्न प्रयत्न निष्फल हो जाता है, उसीतकार उन इंद्रियोंका निरोध करनेवालेकाभी प्रयत्न निष्फल समझना चाहिए।
भावार्थ- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांच इंद्रियां कहलाती हैं । स्पर्शन इंद्रियका विषय स्पर्श करना है, रसना इंद्वियका विषय रस ग्रहण करना है, प्राण इंद्रियका विषय सूचना है, नेत्र इंद्रियका विषय देखना है, श्रोत्र इंद्रियका विषय शब्द सुनना है । इनके सिवाय मनभी इंद्रिय कहलाता है, और वह सब इंद्रियोंके विषय ग्रहण करने में सहायक होता है, तथा समस्त तत्त्वोंको ग्रहण करनेरूप अपने स्वतंत्र विषयको ग्रहण करता है। ये इंद्रियां जब सब अपने-अपने विषयोंमें लीन रहती हैं, तब यह आत्मा अपने स्वरूपको भूलकर इन्हीमें मोहित हो जाता है,तथा इन्हीं इंद्रियोंके विषयोंको संग्रह करने में लगा रहता है। उस समय वह कषायोंको मी तीवना धारण करता है और मान-अपमानकोभी सहन