Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
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रहना, अनेक प्रकारके छल-कपट कर जीविका करना, सदाचारका कुछ ध्यान न रखना, अपना भेष-भूषागा-दंगा बनाना, खई-खर्ड पेशाब करना आदि सब कार्य पशुओंके समान कार्य कहलाते हैं । वास्तव में देखा जाय तो लज्जा और पापोंका भय मनुष्यका एक भूषण है । संसारमें ऐसे बहुतसे पाप है, जो लज्जा और भयसे छूट जाते है । जहाँ लज्जा और भय छूट जाता है, वहींपर अनेक प्रकारके पाप होते हैं। इस कलिकालमें प्रायः लज्जा और भय छूट गया है, तथा स्वतंत्रताकी वायुमें बह जानेके कारण सब लोग निर्लज्ज हो गये हैं, इसीलिए न तो वे धर्म करते हैं, न माता-पिता आदि गुरुजनोंके सामने नम्रता धारण करते है, और न आर्ष संस्कारोंका कुछ ध्यान रखते है । इन्हीं सब कारणोंसे वे लोग संसारमें पडे-पड़े सदाकाल महादुःख भोगा करते हैं। यह सब समझकर प्रत्येक मनुष्यको सबसे पहले अपनी बुद्धि शुद्ध कर लेनी चाहिए । शुद्ध बुद्धिके होनेपरही मनुष्य धार्मिक क्रियाओंकोभी करता है, आर्ष संस्कारोंकाभी ध्यान रखता है, और नम्रताभी धारण करता है। इन सब कारणोंसे वह अपने आत्मकल्याण कर लेता है, और स्वर्गादिक उत्तम गतियोंको प्राप्त होता है ।
प्रश्न - लोके ब्रह्मा शिवो विष्णु: कोस्तीह मे प्रभो वद ?
अर्थ- हे भगवन् अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि इस संसारमें कौन ब्रह्मा है और कौन विष्णु है। उ. ब्रह्मास्ति चात्मैव शुभाशुभादेः कर्तृत्वयोगाद् भुवने प्रसिद्धः तन्नाशकत्वात् समयं च लब्ध्वा स्यात्मैव चोक्तो हि महेश्वरोपि।। स्वात्मात्मना चात्मनि चात्मने वै हनन्यभक्त्या सुखदायकत्वात् स्वात्मैव विष्णुः परमार्थदृष्ट्या ततश्च बंद्योपि स एव पूज्यः ।
अर्थ- इस संसारमें यह आत्माही शुभाशुभ कर्मोको करता है, इसलिए यह आत्माही ब्रह्माके नामसे प्रसिद्ध है, तथा समय पाकर अर्थात काललब्धिके निमित्तसे यह आत्माही उन शुभाशुभ कर्मोको नाश करता है, इसलिए यह आत्माही महेश्वर वा महादेव कहलाता है। इसीप्रकार यही आत्मा अपने आत्माकेद्वारा अपनेही आत्मामें अपनेही आत्माके लिए अनन्य भक्ति धारण कर सुख देता है, इसलिए परमार्थ