Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
करते हैं, और अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न कर नरक-निगोदके दुःख भोगते हैं, इसलिए स्त्रियोंके वशीभूत न होनाही कुशलता है। जो समयके अनुसार चलते हैं वे समयके प्रवाहमें बहकर अपने आत्माका स्वरूप और अपने आत्माका कल्याण करना भूल जाते हैं । यह उनकी अज्ञानता है। जो पुरुष समयके अनुसार अन्य सब काम करते हुएभी आत्माका कल्याण करना नहीं भूलते, समयके प्रवाह में नहीं बहते उन्हींको कुशल पुरुष समझना चाहिए, जो पुरुष संसारमें रहता हुआभी सांसारिक कार्योमें लोन नहीं होता, चक्रवर्ती महाराज भरतके समान जो छडों खंडोका राज्य करता हुआभी उसमें कभी लिप्त नहीं होता, जो इतने बड़े साम्राज्यका पालन करते हुए भी सदाकाल अपने आत्माम लीन रहता है, वही महापुरुष कुशल गिना जाता है, जो पुरुष चारित्रमोहनीयकमक वशीभूत होता हुआभी चारित्रमोहनीयकर्मसे दूर रहता है, अर्थात जो संज्वलन वा प्रत्याख्यानावरण कषायके वशीभूत होता हुआभी अप्रत्याख्यानावरण और अनंतानबंधी कषायसे अत्यंत दूर रहता है, तथा धीरे-धीरे उस प्रत्याख्यानावरण या संज्वलनका भी त्याग कर देता है, ऐसा पुरुष सबसे अधिक कुशल गिना जाता है। इसीप्रकार जो पात्रदान, जिनपूजन आदि धार्मिक कार्योको करता हुआभी अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लीन रहता है, वही पुरुष कुशल कहलाता है । ऐसे-ऐसे कुशलपुरुष इस संसारमें बहुत थोडे होते हैं, और ऐसे कुशलपुरुषही आत्माका कल्याण कर लेते हैं। अतएव प्रत्येक भव्यजीबको ऐसाही कुमाल बनकर आत्माका कल्याण कर लेना चाहिए।
प्रश्न- कौ धर्माचरणेन स्यात्कि कि मे वद भो गुरो ?
अर्थ-हे गुरो! अब कृपाकर मेरे लिए यह बतलाइए कि इस संसारमें धर्मरूप आचरण धारण करनेसे किस-किस पदार्थ की प्राप्ति होती है ?
उ.-दूर सदा दूरतरोस्ति यश्च, स एव सर्वोपि भवेत्समीपः । सुदुर्लभो यःसुलभः स एवाऽसाध्यःससाध्योऽप्यवशो वशी स्यात् सुदुःखदः को सुखदास एव, दुष्टोपि शिष्टौ हि रिपुः सखा स्यात् सोपि माला हि विषं सुधा स्यात् पत्नीव धर्माचरणेन लक्ष्मीः