Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु)
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पशु भी शुद्ध होते हैं । यही समझकर प्रत्येक भव्यजीवको अपने आत्माको शुद्ध करनेके लिए और अन्य जीवोंको मुख और शांति प्राप्त कराने के लिएही जीवित रहना चाहिए।
भावार्थ - इस मंसारमें अनन्त पर्यायें धारण करनी पड़ती हैं परन्तु मनुष्यपर्यायही एक ऐसी पर्याय है कि जिसमें यह जीव मोक्ष प्राणिकर, उपाय ! सतत : अ.. बाले जीवोंमे मोक्षकी प्राप्तिका उपाय करवा सकता है। काम, क्रोध, मोह, मद, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि समस्त विकारोंका त्याग कर तथा बाह्यपरिग्रहका त्याग करके, जो मनुष्य अपने आत्माको शद्ध कर लेता है, वही मनुष्य दूसरे जीवोके आत्माओंको शुद्ध कर सकता है, जो स्वयं कृतकृत्य होता है वही मनुष्य दूसरोंको कृतकृत्य होनेका उपदेश कर सकता है । तथा उसीका प्रभाव पड़ सकता है, दूसरेका नहीं। अतएव मनुष्य जन्मकी सार्थकता अपने आत्माको शुद्ध कर लेना और फिर अन्य जीवों को कल्याणका मार्ग बता देनाही है, और ऐसे लोगोंकाही जीवन सार्थक है. । जो जीव मनुष्य जन्म पाकरके भी अपने आत्माका कल्याण नहीं करते, केवल भोग-विलासमेंही अपना जीवन बिता देते हैं, उनको मृतकके. समानही समझना चाहिए । भोग-विलासमे लगे रहने के कारण वे रात-दिन अनेक प्रकारके महापार उत्पन्न करते हैं, इसीलिए ऐसे मनुष्य राक्षसके समान कहलाते हैं, राक्षसभी पाप करता है, और ऐसे मनुष्यभी रात-दिन पाप करते हैं, इसलिए दोनों समान माने जाते हैं । इस संसारमें बहुत से पशुभी पापोंका त्याग कर देते हैं, वा मांसादिकका सेवन नहीं करते । इसलिए रात-दिन पापमें लग रहनेवाले मनुष्योंकी अपेक्षा उन पशुओंकोभी उत्तम समझना चाहिए ।
अतएव मनुष्यजन्म पाकरके समस्त पापोंका त्याग कर; आत्माको शुद्ध • कर लेना और फिर अन्य जीवोंको कल्याणका मार्ग बतानाही प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है और वह प्रत्येक भव्यजीवको करना चाहिए ।
प्रश्न- भोगे यथा मतिर्दक्षा धर्म भवति कि न सा ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि यह मनुष्योंकी बुद्धि जैसी भोगोपभोगोंके सेवन करने में चतुर होती है, उसी प्रकार धर्मके धारण करने में चतुर क्यो नहीं होती?