Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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(शान्तिसुधा सिन्धु )
कार्य किया करता है। इसलिए हे भव्य ! अब तू इन इंद्रियोंके विषयोंका त्याग करनेके लिए अपने हृदय में सद्बुद्धि धारण कर ।
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भावार्थ - यद्यपि पांचों इंद्रियोंके विषय अत्यंत प्रवल हैं और इनके विषयों में फंसकर यह प्राणी अपने जीवनतककोभी गवां देता है, देखो स्पर्शनेन्द्रियके विषयके वशीभूत होकर हाथी अपनी स्वतंत्रता खो देता है, तथा भूख प्यास आदिको वेदना सहन करता हुआ जन्मभर के लिए परतंत्र हो जाता है, रसना इंद्रियके वशीभूत होकर मछली अपना कंठ छिपाकर मर जाती है, प्राण इंद्रियके वशीभूत होकर भ्रमर कमलमें दबकर मर जाता है, चक्षु इंद्रिय के वशीभूत होकर पतंगा दीपकमें जलकर मर जाता है, और कर्मेद्रियके वशीभूत होकर हिरण अपना जीवन गवां देता है । इसप्रकार एक-एक इंद्रियके वशीभूत होकर भी अनेक प्राणी महादुःख पाते हैं, परंतु जो लोग पांचों इंद्रियोंके वशीभूत हो जाते हैं, उनकी क्या दशा होती होगी इस बातको सर्वजही जान सकते हैं, यद्यपि यह मनुष्य पांचों इंद्रियोंके वशीभूत होता है, तथापि चार अंगुल जिव्हा इंद्रियके कारण यह मनुष्य अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करता रहता है । जिव्हा इंद्रियके कारण यह मनुष्य अनेक प्रकारके अभक्ष्य भक्षण करता है, मद्य, मांस, मधुका सेवन करता है, बड, पीपर, गूलर आदि अनेक जीवोंसे भरे हुए फलोंको भक्षण करता है, आलू, रतालू, शकरकन्द, मूली, गाजर आदि कितने ही प्रकारके कन्दमूलों को भक्षण करता है, और न जाने क्या-क्या पदार्थ व किस-किस हाथके बने हुए पदार्थ भक्षण कर जाता है। इन अभक्ष्य पदार्थोंके भक्षण करनेसे अनेक जीवोंकी हिंसा होती है, उससे महापाप उत्पन्न होता है । इसके सिवाय अभक्ष्य भक्षण करनेवालोंको लालसाएं सदाकाल बढती हैं। उन लालसाओं के कारण वह तीव्र अशुभ कर्मोंका बंध करता है, और उनके उदय होनेपर महादुःख भोगा करता है । इसप्रकार स्पर्शनेन्द्रिय वा लिंगेन्द्रियके कारण यह जीव अनेक प्रकारके अनर्थ करता रहता है, इसी इंद्रियके वशीभूत होकर वह बेश्यासेवन करता है, परस्त्री सेवन करता है, और जाने क्या-क्या अनर्थ और अन्याय करता है। इतना सब करनेपर भी उसकी तृष्णा दिन-रात बढ़ती रहती है, और तीव्र अशुभ कर्मो का बंध करती हुई महादुःख दिया करती है । वेद्यासेवन करनेवाला
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