Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिमुधासिन्धु )
___ अर्थ- हे कल्याण करनेवाले भगान् ! 5. कृष कर दास और अंतरंगशुद्धिका लक्षण बतलाइए? उ.- त्यागेन कोपाविचतुष्टयानां मिथ्यात्वहास्यादिविमोहकानाम् अन्तर्विशुद्धिः सुखदा सदैव क्षेत्रादिवास्तुत्यजनेन बाह्या ३५४
अर्थ- कोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति शोक, भय, जगप्सा, स्त्रीवेद, पंवेद, नपंसकवेद और मोहादि कषायनोकषायोंका सर्वथा त्याग कर देनेसे सुख देनेवाली अंतरंगशुद्धि होती है, तथा खेत, मकान, सोना, चांदी आदि बाद्य परिग्रहका सर्वथा त्याग कर देनेसे बाह्यशुद्धि होती है।
भावार्थ- चौदह प्रकारके अंतरंग परिग्रहोंका त्याग कर देना अंतरंगशुद्धि है, और दश प्रकार के बाह्य परिग्रहोंका त्याग कर देना, बाह्यशुद्ध कहलाती है। इस संसारमें जितने पाप होते हैं, वे सब इन परिग्रहोंसेही होते हैं । जो मनुष्य इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग कर देता है, उसका आत्मा पवित्र हो जाता है, और शरीरभी पवित्र हो जाता है। दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग कर देनेसे आगामी कालमें आनेवाले सब कर्म रुक जाते हैं, और शेष कर्म ध्यानादिकके द्वारा नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार अनरंग और बाह्यशुद्धिको धारण करनेवाला पुरुष शीघ्रही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको दोनों प्रकारकी शुद्धियां धारणकर शीघ्रही अपने आत्माका कल्याण कर लेना चाहिए । यही मनुष्य जन्म प्राप्त करनेका मुख्य फल है।
प्रश्न- कोऽधर्मो बास्ति तद्धारी वद मे सिद्धये विभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब मेरा कल्याण करनेके लिए अधर्मका स्वरूप कहिए और अधर्मको धारण करनेवालेका स्वरूप कहिए ? उ.- त्यक्त्वा स्वधर्म परधर्ममेव गृहाति यः कोपि विवेकशून्याः स एव लोके चतुरोपि मूों धीरोपि भीरुः परमार्थवृष्टया ।। दुःखप्रयः क्रोधचतुष्टयः को प्रोक्त प्रमोहः परधर्म एव । समस्तसंतापविकारहेतुः ज्ञात्वेति न स्यात्परधर्मधारी॥३५६ ।।