Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
२१२
( मानिसमा मधु
पशुओंके समान वा पशुओंसेभी अधिक निन्दनीय आचरणोंका त्याग कर देना चाहिए और दया, अमा, सदाचार आदि मनुष्योचित गुणोंको धारणकर अपने आत्माको पवित्र बना लेना चाहिए जिससे कि परलोक में श्रेष्ठ सूख की प्राप्ति हो।
प्रश्न- अध्यात्मविद्याया कः कः दास: स्याद्वद मे गुरो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि अध्यात्मविद्याकी जानकारीसे कौन - कौन पदार्थ अपने दास हो जाते है ? उ. चितामणिः कल्पतरः सुरेशो दासो नरेशोपि भवेत्फणीश । सुभोगभूमिवरकामधेनुः सुखप्रदो स्वर्गमही स्वदासी ।। ३०९ ।। अध्यात्मविद्याकृपया तथा स्यात् स्वानंवसाम्राज्यसुखं समीपम् ज्ञात्वेत्यविद्या प्रविहाय भव्यरच्यात्मविद्या हृवि धारणीया॥
अर्थ- इस अध्यात्म विद्याकी कृपासे चितामणि रत्न अपना दास बन जाता है, कल्पवृक्षभी दास बन जाता है, इन्द्रभी दास बन जाता है, राजाभी दास बन जाता है, और बरणीन्द्र बा नागेन्द्रभी दास बन जाता है, इस प्रकार उत्तम भोगभूमि और कामधेनुभी दास हो जाती है । तथा सुख देनेवाला स्वर्मभी दास बन जाता है, और आत्मजन्य साम्राज्यका अनंतसुख अपने समीप आ जाता है । यह समझकर भव्यजीवोंको अपनी अविद्याका त्याग कर देना चाहिए, और अध्यात्मविद्या अपन हृदयमें धारण कर लेना चाहिए।
भावार्थ- आत्माके यथार्थ स्वरूपके ज्ञानको अध्यात्मविद्या कहते है। अथवा आत्माके शुद्ध स्वरूपके ज्ञानको अध्यात्मविद्या कहते हैं। जब यह जीव अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपको समझ लेता है, और उसपर निश्चल श्रद्धान कर लेता है, फिर उस जीवको मोक्ष प्राप्त कर लेने में देर नहीं लगती। आत्माकं शुद्ध स्वरूपका ज्ञान होतेही वह आत्माके साथ लगे हुए रागद्वेष, मोह, आदि समस्त विकारोंका त्याग कर देता है। बाह्य परिग्रहोंको आत्मासे सर्वथा भिन्न समझकर उनकाभी सर्वथा त्याग कर देता है, और फिर ध्यान तपश्चरणकद्वारा वह अपने आत्माके अनादि कालसे लगे हुए कर्मोको नष्ट करनेका प्रयत्ल करता है । इस प्रकार वह शीघ्रही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । जिस समय वह अपने