Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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(शान्तिमुधासिन्धु )
स्वयं
स्वयं पुण्य प्राप्त करना चाहिए, और अन्य हजारों मनुष्योंको गुण्य प्राप्न कराना चाहिए। भगवान् अरहंत देवकी जिन प्रतिमाका पंचामृताभिषेक कराकर वा वेदीप्रतिष्ठा, विम्ब प्रतिष्ठा अथवा रथोत्सव कराकर, पुण्य प्राप्त करना चाहिए और अन्य हजारों मनुष्योंको पुण्य प्राप्त कराना चाहिए। इन सब कामों को देखकर हजारों मनुष्य जयजयकार करते हैं, और पुण्य प्राप्त करते हैं। जो मनुष्य धन पा करकेभी ऐसे पुण्यकार्योंको नहीं करते हैं, और अपना सन धन केवल कुटुम्ब के पालनपोषण करनेमें, वा विषय कषायों में ही लगा देते हैं, वे महापापी गिने जाते हैं, पशुओंके समान अज्ञानी कहलाते हैं, और तीव्र मोहके कारण अथवा केवल पापही ज्यार्जन करनेको कारण अवश्य नरकगामी होते है । इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको अपना धन कंवल पुण्य काममेही खर्च करना चाहिए । जो लोग अपना सब धन पुण्यकामों में खर्च करना नहीं चाहते, उनको एक भाग धर्म में खर्च करना चाहिए और दूसरा भाग कुटुम्बके पोषण आदि व्यवहार कार्यों में खर्च करना चाहिए। साथ में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो धन कमाया जाय वह न्यायपूर्वकही कमाना चाहिए | अन्याय से आया हुआ धन कभी श्रेष्ठ कामोंमें नहीं
लग सकता ।
प्रश्न - वसति कौ धनं कस्य मे वद सिद्धये ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसार में यह धन किससे समीप रहता है ?
उ. यावद्धि येषां हृदि जैनधर्मस्तिष्ठेद्लभ्यो भुवि सारभूतः । तावद्धि सेषां सुखशान्तिदात्री तिष्ठेत्स्व पार्श्वेऽखिलराज्यलक्ष्मी भार्यादिबन्धुनिजबन्धुभावैदसोपि दासी तनयोपि तिष्ठेत् । ज्ञात्वेति धर्मो हृदि धारणीयः पूर्वोक्त लक्ष्मीश्च वसेत्स्व पावें ॥।
अर्थ- इस संसारमें यह जैनधर्म अलभ्य है, और सारभूत है, ऐसा यह जैनधर्म जिसके हृदयमें विराजमान रहता है, और जब तक विराजमान रहता हैं, तबतक उसके समीप सुख और शांतिको देनेवाली समस्त भूमण्डलकी राज्यलक्ष्मी अवश्य विद्यमान रहती हैं। इसके सिवाय उसके भाई बंधुभी अपने बंधुभावको धारण करते हुए अर्थात् उसका