Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु)
हित करते हुए उसके समीप रहते हैं, तथा दासी, पुत्र, आदि सब सुखकी सामग्नी उसके समीप रहती है। यही समझकर प्रत्येक भव्य जीवको अपने हृदयमें इस पवित्र जनधर्मको धारण करना चाहिए जिससे कि ऊपर लिखी हुई समस्त सुखकी सामग्री सदाकाल उसके समीप बनी रहे।
भावार्थ- यह बात पहले बता चुके हैं, कि लक्ष्मी वा धनकी प्राप्ति पुण्य कर्मके उदयसे होती है, तथा पुण्य कर्मोमें सर्वोत्तम पुण्यकर्म सम्यग्दर्शनसे प्राप्त होता है, और वह सम्यग्दर्शन जनधर्मके धारण करनेसे वा यथार्थ देव शास्त्र गुरुके श्रद्धान करनेसेही होता है। इसलिए आचार्य महाराजने जैन धर्मके धारण करनेसेही धनादिककी प्राप्ति बतलाई है । यह जैनधर्म अहिंसामय धर्म है, और इसलिए समस्त जीवोंका कल्याण करनेवाला है। इसी कारण यह पवित्र है, मोक्ष प्राप्त करनेवाला है, और संसारके समस्त सुख देनेवाला है । ऐसा यह जैनधर्म बहुत बडे पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त होता है। रात जैन धर्म नीनराग. सर्वज्ञ और हितोपदेशी ऐसे भगवान अरहंतदेवका कहा हआ है, ऐसे जैनधर्मको पा करभी जो भाग्यहीन पुरुष उसको छोड़ देते हैं, अथवा उसमें झूठ-मठके दोष लगाते हैं, अथवा उसके उद्देशोंको बदलकर सर्व साधारणमें उपदेश देते हैं, उन्हें महापापी समझना चाहिए । ऐसे लोग अकेलेही पापकर्म नहीं कमाते, किंतू अन्य लोगोंको उपदेश देकर उनसे भी पापकर्म कराते रहते हैं। इसलिए ऐसे मिथ्या उपदेश देनेवाले पुरुष महापापी कहलाते हैं । जहां पर ऐसे लोग उत्पन्न हो जाते हैं, वहांपर धनकी, जनको अवश्य हानि होती है। इसलिए ऐसे अलभ्य जैनधर्मको पा कर उसकी वृद्धि करने में, उसका यथार्थ प्रचार करने में कभी आलस नहीं करना चाहिए । जनधर्म धारणकर विशेष पुण्य प्राप्त कर लेना प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न- सद्धर्मवृद्धिहेतो भाष्या भाषा च कीदृशी?
अर्थ- हे स्वामिन् अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस श्रेष्ठ जैनधर्मकी वृद्धिके लिए कैसी भाषा बोलनी चाहिए ? उ. भव्येन धर्मस्थितिवृद्धिहेतोः सर्वेण सार्द्ध निजबंधुबुद्धया।
कार्या प्रवृत्तिः सुखदा पवित्रा भाषापि भाष्या मधुरा यथार्था।