Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्ति सुधासिन्धु )
उसके मुख में आते हैं, और वे सब पीछे के रास्ते से निकल जाते हैं, इस देख दुलही करता है, कि यदि मैं होता तो इस प्रकार मुखमें आये हुए सैकड़ों-हजारों मत्स्योंको निकलने नहीं देता, सबको खा जाता। वह तंदुलमत्स्य इस प्रकार सदाकाल चितवन करता रहता है, और इस परपदार्थोंकी अभिलाषा के कारण मरकर सातवे नरक में जाता है। इसलिए भव्यजीवोंको परपदार्थों की अभिलाषा कभी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार विपरीत वेष धारण करनाभी निंदनीय है। जो वेष अपने लिए योग्य होता है, वही वेष उत्तम और प्रशंसनीय माना जाता है। साधुका वेष वीतराग और निविकार निग्रंथ अवस्था है । यदि साधु होकर भी परिग्रह रखता है, वा झोपडी बनाकर रहता है, अथवा भीख मांगकर पेट भरता है, तो वह उसका विपरीत वेष कहलाता हूँ । यदि कोई पुरुष गृहस्थ अवस्था में रह कर छहों खडकी विभूति अपने पास रखता है, तो भी वह निंदनीय नहीं कहलाता, परन्तु वही पुरुष यदि साधु होकर थोडासाभी परिग्रह रखता है, तो अत्यंत निंदनीय कहलाता है । इसका कारण यह है, समस्त पापोंका त्याग कर साधु अवस्था धारण करता है, और साधु होकर शेष समस्त कर्मोंको नाश करनेका प्रयत्न करता है, यदि साधु होकर भी परिग्रह रख कर पाप उत्पन्न करनेका साधन बनाता है, तो फिर वह महापापी कहलाता है । इसलिए साधु पुरुषोंको अपना विपरीत वेष कभी धारण नहीं करना चाहिए। इस प्रकार श्रेष्ठ गृहस्थोंको वा श्रावकोंकोभी अपना विपरीत वेष कभी धारण नहीं करना चाहिए, श्रावकों को सदाकाल ऐसा वेष धारण करना चाहिए जिससे कि कोई श्रावक वा साधु उसे श्रावक समझ ले । मुनि लोग विहार करते हुए न जाने कहांसे आते हैं, तो भी वे श्रावकों के घरोंको ही श्रावकों का घर समझकर उसके भीतरतक हो आते हैं। इसलिए श्रावकोंकोभी अपना वेष कभी चिपरीत नहीं बनाना चाहिए। जो बेष अपने योग्य है, वही वेष धारण करना चाहिए । विपरीत वेष सदा निंदनीय कहलाता है । इसका भी कारण यह है कि विपरीत वेष प्रायः दूसरोंके उगनेके लिए धारण किया जाता है । इसलिए भव्यजीवोंको अपनी योग्यतानुसार वेष धारण करना चाहिए।
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