Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
( शान्तिसुधासिन्धु )
उसने यह महापाप करना भी स्वीकार कर लिया। उस चक्रवर्तीने ज्योंही णमोकार मंत्र लिखकर पांवके अंगूठेमे मिटाया, त्योंही उस देवने वह जहाज डुबोकर अपने पहले भवकी शत्रुताका बदला ले लिया। चक्रवर्ती सुभौम उसी समय मर कर सातवें नरक में पहुंचा । यह उसकी तीव्र लालसाओंकाही फल है । इस संसार में जो जो लालसाएं पूर्ण नहीं होती उन्ही की चिंता रात-दिन बनी रहती है। ये चिन्ताएं समस्त शरीरको सुखा देती है । और रात-दिन संक्लेश परिणाम उत्पन्न किया करती है । यदि किसी पुरुषकी कोई चिता मिट जाती है, तो उसके लिए दो नई चिताएं उत्पन्न हो जाती है, यदि वे दोनों पूर्ण होती है, तो चार नई चिन्ताएं उत्पन्न होती है। इस प्रकार यह मनुष्य चिन्ताओंका पुतला बन जाता है, और शीघ्रही निर्बल होकर मरनेके सन्मुख हो जाता है। यदि इन चिन्ताओंके दूर करनेका कोई उपाय है. तो एकमात्र मोहका त्याग है । जो मनुष्य माहका त्याग कर, समस्त पदार्थोंको समान भावसे देखता है, सबमें समता धारण करता है, धनकी प्राप्ति तथा निर्धनतामें समानता धारण करता है, दुःख-सुखमें समता धारण करता है, जीवन-मरणमें समता धारण करता है, तथा किसीसे भी मोह वा किसी प्रकारका संबंध नहीं रखता, वह पुरुष समस्त चिन्ताओंसे मुक्त होकर महासुखी हो जाता है । फिर उसको आत्मासे उत्पन्न होनेवाला अनुपम सुख प्राप्त हो जाता है । इसलिए प्रत्येक भव्यजीवको मोहका त्याग, समस्त चिन्ताओंका त्याग कर देना चाहिए, और इस प्रकार सुखी होकर आत्माका कल्याण कर लेना चाहिए।
प्रश्न- क्व नैव तिष्ठेद् वद मे मुरो को ?
अर्थ-- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि इस संसारमें कहां-कहां नहीं रहना चाहिए ? उ.-यस्मिन् प्रदेशेऽक्षसुखप्रदेपि न शुद्धवृसिन मुनेनिवासः ।
न ह्यात्मबुद्धिर्न कृती न धर्मी न प्रेमभावो न च तत्त्वचर्चा || . . न मोक्षद :संपमशीललाभो न स्यात्सनीतिः सुख दश्च राजा । स्वप्नेपि तस्मिन्न वसेत्प्रदेशे मोक्षाथिभव्यः स्वरसं पिपासुः ॥