Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
साधारण और रात-दिन देखी हुई बातको भी वे विपरीत मानते हैं । यह भारतवर्ष अनादिकालसे धर्मका प्राण माना गया है। इसके धार्मिकतत्त्व और धार्मिक क्रियाएं सब सर्वोत्कृष्ट और अचल है। पश्चिम रहनेवाली कुछ विद्वान् इस बातको स्वीकार करते हैं, तथापि परिश्रमी वायुमें रंगे हुए कुछ अज्ञानी लोग अपनी धार्मिक क्रियाओंको छोड़कर तथा अपने धार्मिकवेष वा श्रामिकज्ञानको छोड़कर उन्हीं पश्चिम लोगोके समान अधार्मिक क्रियाएं करने लगते हैं, अधार्मिक वेष धारण कर लेते हैं, और भोजन-पान आदिभी सब उन्हीं के समान करने लगते हैं । यद्यपि राज्य के प्रभावसे
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ही पहले वे कुछ प्रभावशाली दिखाई पड़ते हैं, परंतु अंत में उन्हें पछताना अवश्य पडता है, और दुःखी होना पडता है, इसलिए भव्यजीवोंको अपना वेष और अपने विचार सब धर्मानुकूलही रखने चाहिए, यही आत्मा कल्याणका यथार्थ - मार्ग है ।
प्रश्न क स्नेहकरणेनैव दुःखं नश्यति मे बद ?
अर्थ - हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि किस-किस में अनुराग करनेसे अपना दुःख नष्ट होता है ?
उ. देवे हि चाष्टावदोषमुक्ते स्याद्वादशुद्धे सुखदे सुशास्त्र । स्वानम्बतुष्टे सुगुरौ ह्यसंगे स्नेहं तनोत्येव च तद्गुणार्थी २६५ स एव तत्पुण्यभवं सुखावि मुक्त्या स्वराज्यं लभते स्वसद्म । यस्तद्विरुद्धच करोति कार्यं प्राप्नोति दुःखं विषमं निगोदे || अर्थ अठारह दोषोंसे रहित वीतराग सर्वज्ञको देव कहते हैं, स्याद्वाद सिद्धांत से सुशोभित होनेवाले तथा सब जीवोंको सुख देनेवाले जिनप्रणीत शास्त्रोंको शास्त्र कहते हैं, और समस्त परिग्रहोंसे रहित तथा अपने आत्मजन्य आनंदमें मग्न रहनेवाले साधुको गुरु कहते हैं । जो भव्यपुरुष इन देव - शास्त्र - गुरुके वीतराग आदि गुणोंको धारण करनेकी इच्छा करता है, वह पुरुष यथार्थ देव शास्त्र - गुरुमें अनुराग करता है, तथा ऐसा पुरुष उस देव शास्त्र - गुरुके अनुरागसे उत्पन्न होनेवाले पुण्य से स्वर्गादिकोंके सुखोंको भोग कर अपने आत्माकी शुद्धतारूप स्वराज्यको प्राप्त हो जाता है, और अंत में अपने मोक्षस्थानमें जा
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