Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिमुधासिन्धु)
करने में खर्च करना, श्रावकोंके रत्नत्रयकी वृद्धि करने में, वा वात्सल्यअंगके पालन करने में खर्च करना मोक्षमार्गको पुष्ट करनेवाली विद्याके दान देने में खर्च करना, तथा औरभी ऐसेही पुण्य कार्यों में खर्च करना, खर्च कहलाता है। केवल भोग-विलासोंमें खर्च करना लक्ष्मीका अपव्यय कहलाता है । इसलिए प्रत्येक भव्य जीवोंको विद्या, बुद्धि, धनका सदुपयोग करना चाहिए, पुण्य कार्यों में ही उनका खर्च करना चाहिए। ऐसा करने ही इनकी वृद्धि होती रहती है । जिनागमका पठन-पाठन करनेमे, वा प्रचार करनेसे जिनागमकी वृद्धि होती है । वर्तमान में बहुतमे लोग जिनागमका प्रचार तो करते हैं, परंतु उसका अपने किसी स्वार्थ के लिए वा मिथ्यात्व कर्म के तीन उदयमे विपरीत अर्थ लगाकर प्रचार करते हैं। उससे पुण्यकर्म की वृद्धि नहीं होती कितु तीन मिथ्यात्व कर्मोका बंध होता है। इसलिए जिनागमका प्रचार पूर्वाचार्योंकी परम्पराके अनुसारही करना चाहिए । उसका विपरीतसर्थ नहीं करना चाहिए । विपरीतअर्थ करनेसे महापापका बंध होता है । जिस प्रकार तीर्थकर परमदेव यथार्थमार्गका प्रचार करनेसे सर्व पूज्य होते हैं, उस प्रकार विपरीत अर्थ कर अयथार्थ मार्गका प्रचार करनेसे सबसे निकृष्ट अवस्था प्राप्त हो जाती है, अर्थात नरक वा निगोदके दुःख अवश्य भोगने पाइते हैं । इसलिए जिनागमका प्रचार यथार्थ रीतिसेही करना चाहिए । अयथार्थ रीतिसे कभी नहीं करना चाहिए।
प्रश्न- रथारूढा प्रतिश्राद्धा: भवन्ति मे न बा कद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइए कि रथ, गाडी, मोटार, रेल आदि सथारियोंपर चलनेवाले श्रावक व्रती हो सकते हैं, वा नहीं ? उत्तर - प्रथमाधष्टमश्राद्धाः काले धर्मक्रियारताः ।
रथारुढाश्च सर्वत्र नमन्ति कार्यसिद्धये ।। २८६ ।। नवाद्यकादशनाद्धा ध्यानस्वाध्यापतत्पराः । चित्तवशंकरा वीरा याचनादोषभीरवः ॥ २८७ ।। सर्वरथं परित्यज्य जिनाज्ञाप्रतिपालकाः । धर्मार्थ धीधना यान्ति पादाभ्यां पुरतः पुरम् ॥ २८८ ।।