Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिमुधासिन्धु )
अर्थ- इस संसारमें क्षमाके समान अन्य कोई तपश्चण नहीं है, दयाके समान अन्य कोई धर्म नहीं है, चिंताके समान अन्य कोई रोग नहीं है, अपने आत्मजन्य आनन्दरसके समान अन्य कोई रस नहीं है, सम्यक्दर्शनके समान तीनों लोकमें अन्य कोई सुख नहीं है, स्वपरभेदविज्ञानके समान अन्य कोई विद्या नहीं हैं, और सम्यकचारित्रके समान अन्य कोई शान्ति नहीं है । यही समझकर स्वपरभेदबिज्ञान, चारित्र और क्षमा, दया आदिके लिए सदाकाल प्रयत्न करते रहना चाहिए।
भावार्थ- इच्छाओंको रोकनेको तपश्सरण कहते हैं । क्षमा धारण करनेसेभी समस्त इच्छाओंका निरोध हो जाता है, इसलिए क्षमाको सबसे उत्तम तपाचरण नलागा हैं। धाँमें सबसे उत्तम धर्म दया है। इसलिए दयाको सबसे उत्तम धर्म बतलाया है। रोगोंमें सबसे प्रबल रोग चिता है, अन्य रोग नो पन कर नष्ट हो जाते है, वा उपचारसे नष्ट हो जाते हैं । परंतु चितारूपी रोग सहज नष्ट नहीं होता । यदि किसी कारणमे एक चिंता मिट जाती है, तो दुसरी दो चिताएं खडी हो जाती है, रोग बाहरसे दिखाई पड़ते हैं, परंतु चितारूपी रोग बाहरसे दिखाईधी नहीं पड़ता, और भीतर शरीरको जला देता है। इसलिए चिताको सबसे प्रबल रोग बतलाया है । इसप्रकार आत्मजन्य आनंदरस सबसे उत्तम रस कहलाता है । इस रसके प्राप्त होनेपर अनंतसुख प्राप्त हो जाता है। अन्य सब रस क्षणभुगर हैं, और यह रस सदाकाल रहनेवाला है। इसलिए इसको सबसे उत्तम रस बतलाया है । सम्यग्दर्शनको सबसे उत्तम सुख बतलाया है । इसका कारण यह है कि, सम्यग्दर्शन अनंतमुखोंका मूलकारण है । मोक्ष प्राप्तिका मूलकारण सम्यग्दर्शनहीं है। इसलिए सम्यग्दर्शनको सबसे उत्तम सुख बतलाया है । इसप्रकार स्वपरभेदविज्ञामही सबसे उत्तम बिद्या है। यह विज्ञान मोक्षका कारण है, इसके सिवाय अन्य सब विद्याएं संसारकी कारण हैं, इसलिए विद्याओमें सबसे उत्तम विद्या स्वपरभेदविज्ञान है । इसके समान अन्य एकभी विद्या नहीं है। इसप्रकार शांति त्यागमें है, चारित्रमें है. परिग्रहका त्याग कर देनेसे फिर किसी प्रकारकी चिताही नहीं रहती। फिर तो केवल आत्मजन्य आनंदका आस्वादन होता है। इसलिए भव्यजीवोंको चिताका त्याग कर, अन्य दया, क्षमा आदि आत्माके गुणोंको धारण करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिए।