Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
प्रश्न- अब तिष्ठति गुरो देवो मूर्ख: क्वान्विष्यति प्रभो ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि देव कहां रहता है, और मूर्व वा अज्ञान लोग उसे कहां ढूंडते हैं ? उ.यात्रादितीर्थे यजने न देहे देवो न काष्ठे न वने शिलायाम् ।
शैले श्मशाने भुवने न हम्य जले स्थले खे रजते न रत्ने ३५२ यथार्थदृष्टया यदि तिष्ठतीह, देवाधिदेने न च देवरूपे । देवः सदा तिष्ठति शुद्धबुद्धो मोहादिमुक्तेः प्रविलोकनीयः ।।
अर्थ- देव न तो किसी यात्रामें है, न किसी तीर्थमें, न किसी पूजामें है, न किसी शरीरमें है. न किसी लकडीमें है, न वनमें है. न किसी पत्थरमें है, न किसी पर्वतपर है. न किसी कमशानमे है, न किमी लोकम है, न किसी मकानमें है, न किसी जलमें है, न किसी स्थल में है. न आकाशमैं है, न चांदीमें है, और न किसी रत्नमें है । यदि यथार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो देव इनमें किसीमें नहीं रहता। यदि रहता है, तो आत्मामें रहता है, अरहंतदेवके सिवाय देव कहलानेवाले अन्य किमीम नहीं रहता । वह देव कर्ममल-कलंकरहित अत्यंत शुद्ध है, और बुद्ध अर्थात् ज्ञानस्वरूप सर्वज्ञ है । वह ऐसा देव मोह, मद, बा कषायासे रहित, मनुष्योंके द्वाराही देखा जाता है ।
भावार्थ- जो अठारह दोषोंसे रहित वीतराग हो, जो समस्त पदार्थोको जाननेवाला ज्ञानमय सर्वज्ञ हो, और जो समस्त जीवोंका कल्याण करनेके लिए हितमय उपदेश देता हो, जसको देव कहते है, वह शुद्ध आत्मा अपनेही शुद्धरूप आत्मामें रहता है, अपने आत्माको छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं रहता । जो लोग इस बातको नहीं समझते है वे उस देवको बनमें बूंडते है, पर्वतपर ढूंडते है. तथा और अनेक स्थानोंम दूंडते फिरते है, परंतू बह देव इन स्थानोंमें कहीं नहीं मिलता। जैसे देव पूज्य है, वैसेही तीर्थभी पूज्य हैं, और सब लोग जिस प्रकार देवकी पूजा करते हैं, उसी प्रकार तीर्थोकी पूजा करते हैं। तथापि देव और तीर्थोंमें अंतर है । जिस प्रकार गुड मीठा है, परंतु उस गुडसे बने हुए आटके पूए उस गुडसे भी अधिक स्वादिष्ट और अधिक मीठे होते हैं। इस प्रकार भगवान अरहतदेव तो पूज्य है ही. इसमें तो किसी प्रकारका संदेह नहीं है, परंतु