Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
( शान्तिसुधासिन्धु)
पुण्यकार्य करता रहता है, या पापकार्य करता रहता है । जिस प्रकार सेट लोग अपने वहीं खातेका हिसाब ठीक रखते हैं, और अपने हानिलाभका पूरा ध्यान रखते है, जहांतक बनता है, वहांतक हानि नहीं होने देते । इसप्रकार प्रत्येक भव्य जीवको अपने पुण्य-पापकाभी हिमान रखना चाहिए, और पाप अधिक न होने पाबे, इस बातका पूरा ध्यान रखना चाहिए । जीवोंकी हिंसा नहीं करना; दया पालन करना, सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, अहान पान करता, अधिक लालसा नहीं रस्त्रना, रागद्वेष, मोह आदि विकारोंका त्याग कर देना, मद्य, मांस. मधुका त्याग कर देना, सप्त व्यसनोंका त्याग कर देना, किसी प्रकारका अन्याय नहीं करना, अभक्ष्य भक्षण नहीं करना, आदि सब पुण्यकार्य कहलाते हैं । इनके सिवाय प्रतिदिन जिनपूजन करना, पात्रदान देना, निग्रंथ गुरुकी उपासना करना, शास्त्रीको आज्ञानुसार अपनी प्रवृत्ति करना आदि सन्न पुण्यकार्य हैं, तथा इसके विपरीत सब कार्य पापकार्य है। जो मनुष्य पुण्यकार्योसे वंचित रहता है, वह पापकार्यही करता है, और फिर परलोकमें वह पराधीन होकर अनेक प्रकारके दुःख भोगता रहता है । इसलिए इस जीवको पापोंसे बचनेके लिए और अपने आत्माको दुःखोंसे बचाने के लिए सदाकाल पूण्यकार्य करते रहना चाहिए. इसीसे जीवके सुख में कभी विघ्न नहीं हो सकता। फिर वह जीव सदामुखी रहता है।
प्रश्न- हानिः स्थाद्वा धनत्यागाद्धनवृद्धिगुरो बद ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि धनको दानादिकमें खर्च करनेसे धनकी हानि होती है, अथवा वृद्धि होती है। उ. विद्यादिबुद्धः सरसश्च वाप्याः सुलब्धलक्ष्म्याश्च सदाऽव्ययेन
समूलहानिश्च जिनागमस्य व्ययात्समन्तात्परिवर्द्धते को २८४ ज्ञात्वेत्यवश्यं धनबुद्धिलक्ष्म्याः व्ययश्च कार्यो न च रक्षणीयः यतः सुबुद्धिश्च धनं सुविद्या धर्मोपि वर्द्धत सदैव लोके २८५
अर्थ-- इस संसारमें विद्या, बुद्धि, सरोवर, बाबडी, और प्राप्त हुई लक्ष्मीका व्यय न करनेसे उनकी सर्वथा हानि हो जाती है । इम