Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
पवित्रता आ जाती है। इस प्रकार इन्द्रियोंके सुख में लीन हुआ यह मनुष्य सदाकाल ब्याकुल और चंचल बना रहता है। जब यह मनुष्य इन्द्रियोंके मुखका त्याग कर देता है, तब उसकी व्याकुलता वा चंचलताभी नष्ट हो जाती है। और फिर यह आत्मा अपने स्वभावमें स्थित हो जाता है । जब यह आत्मा आपने अज्ञानके कारण सदा उद्धिग्न बना रहता है, अपनी अज्ञानताके कारण परपदार्थोसे मोह करने लगता है, और फिर उनके संयोग-वियोग होनेपर दुःखी होता है । जब इसका अज्ञान नष्ट हो जाता है, और यह आत्माके स्वरूपको तथा अन्य पदार्थके यथार्थ स्वरूपको जान लेता है, तब फिर उनसे मोहका त्यागकर निराकुल वा शांत हो जात है, और वह शांति सदाकाल बनी रहती है । इस प्रकार अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपका अनुभव करने में मुक्तिभी दासीके समान सदाकाल पासही बनी रहती है । जो मनुष्य अपने आत्माका यथार्थ स्वरूपका अनुभव करता है वह अवश्यही मुक्त हो जाता है। गह समझकर भव्य जीवोंको भगवान जिनेंद्रदेवकी आज्ञाका पालन करते रहना चाहिए, लोभका त्यागकर पवित्रता धारण करना चाहिए। इंद्रियसुखका त्याग कर निश्चल हो जाना चाहिए, आत्मज्ञान प्रकटकर आत्माको शांत बना लेना चाहिए, और आत्माके शुद्ध स्वरूपका अनुभवकर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए ।
प्रश्न- विभाति कामधेन्वादिः स्वलीनाय च कीदृशः ?
अर्थ-हे स्वामिन् ! अब यह बतलाइये कि मनिराज अपने आत्मामें लीन रहते हैं उनको सर्वोत्कृष्ट कामधेनु आदि दुर्लभ कैसे जान पड़ते हैं ?
उ. स्वानंदतप्ताय मुनीश्वराय देवेंद्र लक्ष्मीधरणेद्रसम्पत् ।
नरेंद्रराज्यं वरकामधेनुश्चिन्तामणिः कल्पतरोः वनादि २७६ सुभोगभूमिस्तृणद्विभाति तथा मनोवांछितभोजनादिः । कथैव साधारणवस्तुनः का लोके मुनीनां महिमायचित्यः
अर्थ- जो मनिराज सदाकाल अपने आत्मजन्य आनंदमें तृप्त बने रहते हैं, उनके लिए साधारण पदार्थों की तो बात ही क्या है, उनके लिए इन्द्रकी महाविभूतिभी तृणके समान जान पड़ती है, धरणेंद्रकी सम्पदाभी