Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अर्थ - हे भगवान् ! अत्र कुपाकर यह बतलाइये कि इस जीबको अपनी वस्तु ग्रहण करने में सुख होता है, अथवा परपदार्थोक ग्रहण करने में सुख होता है ? उत्तर - व्यथा स्याद्वचनातीताऽन्यबस्तुग्रहणेऽर्थतः ।
स्ववस्तुग्रहणे सौख्यमक्षातीतं स्वभावजम् ॥ २२४ ॥ तथापि मोहमृतश्च त्यक्त्वा स्ववस्तु शर्मदम् । गृह्याति परवस्त्वेव कष्टं दुःख शतप्रदम् ॥ २२५ ॥
अर्थ- वास्तवमें देखा जाय तो इस संसारमें परपदार्थोके ग्रहण करनेसे जो दुःख होता है, वह वचनोंसे भी नहीं कहा जा सकता । तथा अपना पदार्थ ग्रहण करनेमें इन्द्रियोंके अगोचर और स्वभाबसे उत्पन्न होनेवाला अपार गुस्त्र प्राप्त होता है । यद्यपि वस्तुका स्वभाव ही ऐसा है । तथापि मोहसे अज्ञानी हुआ यह मनुष्य कल्याण करनेवाले अपने आत्मतत्त्वको तो छोड देता है, और परपदार्थोकोही ग्रहण करता है। यह मैकड़ों दुःख देनेवाली महाकष्टकी बात है । ___भावार्थ-- इस जीवका स्वपदार्थ शुद्ध आत्मतत्त्व है, तथा अपने आत्माके सिवाय अन्य जितने पदार्थ हैं, वे सब परपदार्थ हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जगप्सा, काम, मोह, राग, द्वेष आदि सब परपदार्थ कहलाते हैं, तथा शरीर, धन, धान्य, सोना, चांदी आदि भी परपदार्थ कहलाते हैं । यह जीव मोहके कारणही परपदार्थोको ग्रहण करता है, और फिर उनमें इष्ट-अनिष्ट कल्पना कर उनके संयोग-वियोगसे महादुःखी होता है । इस प्रकार यह जीव अनादिकालसे दु:खी होता चला आ रहा है। यह मोह आत्माके स्वरूपको जानने नहीं देता । इसलिए यह जीव अपने आत्माको भूल जाता है। जब यह आत्मा मोहका त्याग कर देता है, और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर आत्माके स्वरूपको समझ लेता है, तब यह आत्मा परपदार्थोको कभी ग्रहण नहीं करता । यदि कारणवश ग्रहण करता भी है, तो उसमें इष्ट-अनिष्ट कल्पना नहीं करता। इसलिए उन पदार्थाका संयोगवियोग होनेपर भी वह दुःखी नहीं होता। फिर तो बह अपने आत्मामें लीन होनेका प्रयत्न करता है । यह परपदार्थोका त्याग