Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु)
उनको अपनी इन्द्रियां अपने वशमें कर लेनी चाहिए । अर्थात उन्हें इंद्रियोंका निग्रह कर लेना चाहिए । इन्द्रियोंका निग्रह कर लेनेसे यह जीब मोह और पवाया का त्याग कर देता है, और अपनं आमाको निर्मल वा शुद्ध बनाकर सदाके लिए अनंतमुखी हो जाता है।
प्रश्न- सज्जनानां स्खलानां च स्वरूपं बद मे प्रभो ?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब कृपाकर सज्जन और दुर्जनोंका स्वरूप निरूपण कीजिये? उत्तर - निःस्वार्थबुद्धया यतते परार्थ
स एव धीमान् भुवि भाग्यशाली। .. स्वार्थाविरोधर्यतते परार्थ सामान्य एवास्ति सतां विचारे ॥ २०६ ।। स्वार्थाभिवृद्धयै च परान् प्रहन्ति पशुशंसोस्ति स एव धूर्तः । निष्कारणेनैव हिनस्ति चान्यान्
ववतुं प्रचो नास्ति स कीदृशः कौ ॥ २०७ ॥
अर्थ- जो पुरुष अपने बिना किमी स्वार्थके दूसरोंका कल्याण करते हैं, वे पुरुष संसारमें बद्धिमान और भाग्यशाली माने जाते हैं। तथा जो पुरुष अपने स्वार्थका विरोध न करते हुए दूसरोंका कल्याण किया करते हैं, वे पूरुष सज्जनोंके विचारमें सामान्य पुरुष कहलाते हैं,
और जो मनुष्य अपने स्वार्थकी सिद्धि के लिए बा स्वार्थ बढाने के लिए दुसरोंकी हिंसा तक कर देते हैं, वे मनुष्य इस मंसारमें पशु, धूर्त और नृशंश वा मनुष्यघातक कहलाते हैं । परंतु जो मनुष्य बिना किमी कारणके दूसरोंकी हिंसा कर देते हैं, ऐसे मनुष्य कैसे हैं, इस बातको कहने के लिए इस मंसारमें कोई वचन भी नहीं हैं।
भावार्थ-- दूसरोंका उपकार करना, दूसरोंके आत्माका कल्याण करना, उनके पापोंका त्याग कराना, धर्मोपदेश देना, धर्म धारण कराना और उनके धर्मकी रक्षा करना परोपकार कहलाता है । इस परोपकारको बहुतसे महात्मा अपने बिना किसी स्वार्थके सदाकाल