Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
हरीवास के ऊपर से भी चलने लगे और अप्रासुक जलको भी काममें लाने लगे । मुनि होकर भी व्यवहारमार्गको इस प्रकार छोड देना मिथ्यात्वकर्मके ही तीव्र उदयसे हो सकता है। जिस जीवके मिथ्यात्व कर्मका अत्यंत मंद उदय होता है, वह पुरुष भी इस प्रकार व्यवहारमार्गको नहीं छोड़ सकता । अंतएव प्रत्येक भव्यजीवको अपने आत्माको अपने आत्मामें स्थिर रखने के लिए सबसे पहले मिथ्यात्वको नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिए। मिथ्यात्वकर्मको नष्ट कर लेनेसे इस आत्माका सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होनेसे आत्मज्ञान प्रगट होता है, और आत्मजान प्रगट होनेमे फिर यह आत्मा मोक्षमार्गमे कभी चलायमान नहीं हो सकता, जो पुरुष मोक्षमार्ग से चलायमान नहीं होता, वह न तो व्यवहारमार्गसे चलायमान होता है, न निरन्त्रयधमंसे चलायमान होता है, ओर न रत्नजयसे चलायमान होता है ।
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प्रश्न - जनसंघः प्रभो कस्मै रोचते मधुना वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि लोगोंका समुदाय किसको अच्छा लगता है, और किसको अच्छा नहीं लगता ? उत्तर - चित्तेप्यहंकाररिपुश्च येषां
दुःखप्रदः स्यात्ममकार एव । तेभ्यो नृसंगः सजनः प्रदेश: सुरोचते विश्वविचित्रवार्ता ॥ १८९ ॥ येषामहंकाररिपुर्न चित्ते
भवप्रदं वा ममकारजालम् । तेभ्योऽसुसंगः सजन प्रदेशो
न रोचते स्वात्मपदं विना कौ ॥ १९० ॥
अर्थ - जिनके हृदयमें अहंकाररूपी शत्रु विद्यमान है और जिनके हृदयमें दुःख देनेवाला ममकार वा मोह विद्यमान है, उन्हीं लोगोंको मनुष्यों का समुदाय और मनुष्योंके रहनेके स्थान अच्छे लगते हैं, ग्रह भी एक संसारमें विचित्र बात है । परंतु जिनके हृदयमें न तो अहंकार है, और न संसारको बढानेवाला ममकार वा मोह है, ऐसे पुरुषोंको न तो