Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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(शान्तिसुधा सिन्धु )
जीवोंका समुदाय अच्छा लगता है, और न जीवोंके रहनेके स्थान अच्छे लगते हैं । उनको तो केवल अपना आत्मा और अपने आत्मा के प्रदेश वा आत्माके गुण ही अच्छे लगते हैं आत्मा के सिवाय उन्हें और कुछ अच्छा नहीं लगता ।
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भावार्थ- परपदार्थोंसे मोह करना अहंकार वा ममकारका कार्य है जिन लोगों के मन में अहंकार और ममकार है, वे ही पुरुष परपदार्थों से मोह करते हैं । ऐसे लोगोंको पुत्र, मित्र, स्त्री, माता, पिता आदि कुटुंबी लोग अच्छे लगते हैं, धन धान्य आदि बाह्य विभूति अच्छी लगती है, और अपने तथा कुटुंबी लोगों के रहनेके स्थान अच्छे लगते हैं, अहंकार और ममकार होनेके कारण वे पुरुष अपने आत्माक
को भूल जाते हैं, इसलिए वे अपने मनको आत्माके स्वरूपमें नहीं लगा सकते | मोहनीय कर्मका उदय उनके मनको आत्माके स्वरूपमें नहीं लगने देता । परंतु जो पुरुष उस मोहनीय कर्मको नष्ट कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करलेते हैं, वे उस सम्यग्दर्शनरूप अमूर्त प्रकाशके कारण अपने आत्मा के स्वरूपको पहिचानने लगते हैं, और फिर उसीको अपना निधि मानकर उसकी रक्षा करनेमें तत्पर हो जाते । फिर उस निधि के सामने उन्हें बाह्य समस्त विभूति तुच्छ और दुःख देनेवाली जान पडती है। इसलिए वे का भी त्याग कर देते हैं, और अपने आत्मामें लीन होकर अपने आत्माका कल्याण कर लेते हैं । अतएव भव्यजीवको अहंकार और ममकारका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । तथा आत्मा के स्वरूपको समझकर कल्याण कर लेना चाहिए।
प्रश्न -- कस्य बाह्यरसे प्रीतिर्मोहमायापरे बद ?
अर्थ- हे स्वामिन ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि कौन पुरुष बाह्यरसमें प्रेम करता है, कौन पुरुष परपदार्थों में मोह वा माया करता है । उत्तर - यावन्निजानन्दरसोतिमिष्टो
न पीयते जन्मजराहरश्च । न त्यज्यते बाह्यरसाभिलाषा समस्तसंतापविकारवात्री ॥। १९१ ॥