Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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(शान्तिसुधा सिन्धु )
हो सकता और ईर्ष्या वा अभिमानका त्याग करना कभी सरल नहीं हो सकता । यही समझकर भन्यजीवोंको मोह, कषाय वा ईर्ष्या, अभिमान आदि आत्मा के विकारोंके त्याग करनेका प्रयत्न करना चाहिये । इन्हींका त्याग करना आत्माके हितका कारण है ।
भावार्थ- परिग्रह दो प्रकारके होते हैं, अंतरंग परिग्रह और बांधपरिग्रह | खेत, मकान, पशु, धान्य, धन, दासी, दास, आसन, शव्या, उत्त्र और वर्तन के संग काम नहि कहलाते हैं, तथा मिथ्यास्त्र, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति शोक, भय, जुगुप्या, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चौदह अंतरंग परिग्रह कहलाते हैं । इनमें से बाह्य परिग्रहका त्याग करना तो सरल है, परंतु अंतरंग परिग्रहका त्याग करना अत्यंत कठिन है। इसका भी कारण है कि ये अंतरंग परिग्रह इस जीवके साथ अनादि कालसे लगे हुए हैं । बाह्य परिग्रह तो कभी होते हैं, और कभी नहीं होते, अथवा कभी अधिक होते है, और कभी बहुत कम होते हैं । परंतु अंतरंग परिग्रह आज तक कभी नहीं छूटे | यदि एक बार भी इन अंतरंग परिग्रहोंका त्याग हो जाता, तो इस जीवको अवश्य ही मोक्षकी प्राप्ति हो जाती । इस मोक्षकी प्राप्ति में अंतरंग परिग्रहोंका त्याग होना ही मुख्य कारण है । अंतरंग परिग्रहोंका त्याग होनेसे आत्मा में निर्मलता प्राप्त होती है, तथा आत्मा में निर्मलता प्राप्त होनेसे रत्नत्रयादिक आत्माके गुण प्रगट होनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार मोक्षकी प्राप्तिमें अंतरंग परिग्रहोंका त्याग ही मुख्य कारण है । इस लिए भव्य जीवोंको सबसे पहिले इन अंतरंग परिग्रहोंका त्याग करनेका ही प्रयत्न करना चाहिए । यही मनुष्य जन्म प्राप्त करनेका फल है ।
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प्रश्न- को सुखदः स्वधर्मो वा विधर्मोस्ति गुरो वद ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारम सुख देनेवाला स्वधर्म है या विधर्म है ?
उत्तर
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धर्मः स्वकीयः सुखदः प्रसिद्धः विधर्मएवाखिलदुःख दोस्ति । ज्ञात्वेत्यधर्मं प्रविहाय नियं ग्राह्यः स्वधर्मः सुखदः सदैव ॥ १७० ॥