Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिमुधासिन्धु )
मोक्षप्रदं पाययितुं सुभव्यान्, मेघो यथा वै यतते यथेष्टम् ॥ १८२ ॥
अर्थ- इस संसार में जिस प्रकार सूर्यके बिना दिन सुना सा दिखाई पडता है, उसी प्रकार तत्वोंके स्वरूपको दिखलानेवाले, और आत्मजन्य आनन्दकी मूर्ति ऐसे वीतराग निग्रंथ गुरुके बिना यह समस्त संसार सूनासा दिखलाई पडता है। जिस प्रकार मेघ समस्त संसारी जीवोंको पानी पिलानेका यथेष्ट प्रयत्न किया करते हैं । उसी प्रकार धीरवीर वीतराग निग्रंथ गुरु भी बिना अपने किसी स्वार्थक भव्य जीवोंको अत्यंत पवित्र अत्यंत मिष्ट ऐसे मोक्ष सुखको देनेवाले ज्ञानामृतका यथेष्ट पान करानेका प्रयत्न किया करते हैं ।
भावार्थ - इस संसार में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ कहलाते हैं । इनमेंसे श्रावकों के लिए धर्म, अर्थ और काम में तीन पुरुषार्थ अनुक्रमसे सेवन करने योग्य हैं, तथा मोक्षपुरुषार्थ परम्परासे सेवन करने योग्य हैं । इन चारों पुरुषार्थो मेंसे मोक्षपुरुषार्थं तो सर्वथा निर्बंध वीतराग गुरुके ही अधीन है, तथा धर्मपुरुषार्थ भी उन्हीं गुरुको आधीन है। यदि वीतराग गुरुकी यथार्थं सेवा न की जाय तो किसी भी गृहस्थको धर्मपुरुषार्थकी सिद्धि नहीं हो सकती । धर्मकी प्राप्ति गुरुसे ही होती है, तथा विना धर्मपुरुषार्थ के अर्थ और कामपुरुषार्थं हो ही नहीं सकते, क्योंकि कामपुरुषार्थ की सिद्धि अर्थपुरुषार्थ से होती है, और अर्थं पुरुषार्थकी सिद्धि धर्मपुरुषार्थ से होतो है, इसीलिए इन तीनों पुरुषार्थी में धर्मपुरुषार्थ ही मुख्य माना जाता है। विना धर्मपुरुषार्थ के अर्थ, कामपुरषार्थ की सिद्धि हो नहीं सकती तथा धर्मपुरुषार्थ वीतराग निग्रंथ गुरुकी सेवा सुश्रूषा करनेसे ही प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार धर्म, अर्थ और कामपुरुषार्थ से सुशोभित रहनेवाला गृहस्थजीवन वा श्रावकजीवन सब वीतराग निर्बंध गुरुओंके आधीन हो जाता है। यदि वीतराग निग्रंथ गुरुकी प्राप्ति न हो, वा उनकी सेवासुश्रूषा न की जाय, तो धर्मपुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती, तथा बिना धर्मपुरुषार्थ के अर्थ और कामपुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार बिना निग्रंथ गुरुके गृहस्थजीवन ही शून्य हो जाता है, और गृहस्थजीवन के शून्य होनेसे यह समस्त संसार शून्य ही दिखाई पड़ता है । जिस प्रकार