Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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(शान्तिसुधसिन्धु )
होकर भी अपनेको ज्ञानी मानता है, और जो भगवान अरहंत देवमें और गुरु-शिष्यों में कोई भेद नहीं मानता, वह पुरुष अपने आत्मा धर्मका लोप करनेवाला माना जाता है, और नरकगामी होता है ।
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भावार्थ- आचार्योंने आत्माका गुरु आत्माको ही बतलाया है, वह आठवें गुणस्थान में वा उससे ऊपर बतलाया है। आठवें गुणस्थान में पहुंचने पर यह आत्मामें स्थिर हो जाता है, और आत्मसुखमें लीन हो जाता है । उस समय यह आत्माकेद्वारा अपनेही आत्मामें लीन होकर कर्मो को नष्ट करता जाता है। और अपने आत्माको शुद्ध करता जाता है । ज्यों-ज्यों आत्मा शुद्ध होता जाता है । त्यों-त्यों यह आत्मा ऊपरके गुणस्थानों में चढता जाता है, यहां तक कि बारहवें गुणस्थानके अंत में घातिया कर्मोंको नाश कर, तथा केवलज्ञान प्राप्त कर जगत्गुरु अरहंतदेव बन जाता है । यह सर्वोत्तम अवस्था अपनेही आत्माकेद्वारा प्राप्त होती है । इस लिए आठवें गुणस्थानके ऊपर यह आत्मा अपने आत्माको शुद्ध करने के लिए स्वयं ही अपना गुरु होता है. इसलिए यात्राने आत्माकोही आत्माका गुरु बतलाया है, परंतु आठवें गुणस्थानसे नीचे गुरु-शिष्य भाव अवश्य मानना पडता | क्योंकि आठवे गुणस्थानसे नीचे बिनागुरुकी कृपाके यह शिष्य अपने आत्माका कल्याण नहीं कर सकता। इसलिए जो मूर्ख अपने आत्माको ही शुद्ध मानता हुआ, अपने गुरुको नहीं मानता, अथवा अपने आत्माको महाज्ञानी मानकर गुरुको नहीं मानता, उसको धर्महीन समझना चाहिये । ऐसा पुरुष अवश्य ही नरकमाभी होता है ।
प्रश्न
विनयादिगुणः क्वास्ति नास्ति क्व मे गुरो वद ?
अर्थ- हे गुरु | अब कृपाकर यह बतलाइये कि विनयादिक कहां कहां रहते हैं, और कहां-कहां नहीं रहते ?
उत्तर - विद्याविनीतश्च वसेच्च चित्ते सम्यक् प्रवृत्तिविनयोपचारः दयार्द्रभावः सद्सद्विचारो
निरन्तरं वांच्छितदः स्वधर्मः ॥ १८५ ॥