Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
अर्थ - इस संसार में यह प्रसिद्ध है, कि स्वकीय धर्म ही सुख देनेवाला है, तथा स्वकीय धर्मके प्रतिकूल जो विधर्म है । वह समस्त दुःखों को देनेवाला है | यही समझकर इस निंदनीय धर्मका त्याग कर देना चाहिए, और सुख देनेवाले स्वधर्मको सदाकाला ग्रहण करते रहना चाहिए |
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भावार्थ- स्व शब्दका अर्थ आत्मा है, आत्माका जो निजस्वभाव है, वही स्वधर्म कहलाता है, तथा जो आत्माका विभावभाव है उसको विधर्म वा अधर्म कहते हैं. आत्माका स्वभात्र रत्नत्रय स्वरूप है, इसलिए रत्नत्रय हो स्वधर्म है, अथवा उत्तम क्षमादिक दशधर्म आत्माका स्वभाव है, इसलिए इस दशमको भी स्वधर्म कहते हैं । अथवा आत्माका जो अत्यंत शुद्ध स्वभाव है, वह स्वधर्म कहलाता है । यह सत्र स्वधर्म मोक्ष के कारण है आत्म-जन्य अनंत सुखको देनेवाला है, अपने आत्मामें स्थिर रहनेसे ही इस आत्माको निराकुलता और शांतिकी प्राप्ति होती है । इसलिए, यह स्वधर्म सदाकाल सुख देनेवाला माना जाता है। इस स्वधर्मके विपरीत जो आत्माके विकार हैं, वे सब वि कहलाते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि जितने आत्माके विकार हैं, वा जितने परिग्रह हैं, वे सब स्वधर्म से विपरीत है, कर्मोक उदयसे उत्पन्न होते हैं, और नरकादिकके कारण हैं । इसलिए वे सब अधर्म वा विधर्म कहलाते हैं, और नरकादिकके महा दुःख देनेवाले हैं । इसलिए भव्य जीवोंको इन अधर्मोका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए 1 और दोनों लोकों में सुख देनेवाले स्वधर्मको ग्रहण कर लेना चाहिए ।
प्रश्न- कोस्ति स्वधर्मो वद मे विधर्म: ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि स्वधर्म किसको कहते हैं, और विधर्म किसको कहते हैं ?
उत्तर - / यत्रास्ति मोहादिकषायकोशस्तत्रास्ति तुष्टो विषमो विधर्मः । न दृष्यते मोहकषायकोशस्तनास्ति चानन्दमयः स्वधर्मः ॥ १७१ ॥