Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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(शान्तिसुधा सिन्धु )
वही पुरुष अपने आत्माका हित करनेवाला गिना जाता है। जो पुरुष स्वयं राग-द्वेषका त्याग कर देता है, वही पुरुष दूसरोंको राग-द्वेष के त्याग करनेका उपदेश दे सकता है, और अन्य जीवोंपर उसके उपदेशका प्रभाव पड सकता है। जिसने स्वयं राग-द्वेषका त्याग नहीं किया है, वह दूसरोंसे राग-द्वेषका त्याग कभी नहीं करा सकता । यही कारण कि तीर्थंकर परभदेव दीक्षा लेकर भी, जब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता तब तक उपदेश नहीं देते हैं. केवलज्ञान प्राप्त होनेपर जब उनका आत्मा परम शुद्ध हो जाता है, और वे आदर्श देव बन जाते हैं, तब वे दूसरोंको उपदेश देते हैं । इससे सिद्ध होता है, कि जो जीव अपने आत्माका हित कर लेता है, वही जीव दूसरोंका हित कर सकता है । इसलिए भव्य जीवोंको सबसे पहले राग-द्वेषका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये, अपनी कुटिल प्रवृत्तियोका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये और अन्य समस्त चिताओंका वा विकारोंका त्यागकर, आत्माको अत्यंत शुद्ध बना लेना चाहिये | आत्माको अत्यंत शुद्ध बना लेनेसे ही अनंत सुखकी प्राप्ति होती है, तथा यही आत्माका हित है ।
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प्रश्न- मोक्षोपायो गुरो कोस्ति दयाब्धे वद मेऽधुना ?
अर्थ - हे दयासागर गुरो ! अब कृपाकर मुझे यह बतलाइए कि मोक्षका उपाय क्या है ?
उत्तर
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तपोजपक्रियायोगात्केवलं वेषमात्रतः
व्रतोपवासमात्राद्धि मोक्षो न निकटायते ॥ १७६ ॥ स्वपरबोधतो मोक्षोऽन्यवस्तुत्यागतस्ततः । दासीवात्मानुभूतिश्च मोक्षोपि निकटायते ॥ १७७ ॥
अअ - केवल तप करनेसे, वा केवल जप करनेसे, अथवा ऐसी ही और क्रियाएं करनेसे, वा केवल वेष धारण कर लेनेसे, अथवा केवल व्रत, उपवास कर लेने मात्रसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, किंतु मोक्ष की प्राप्ति स्वपरभेद - विज्ञानसे होती है, तथा राग-द्वेषादिक अन्य पदार्थोके त्याग कर देनेंसे होती है । स्वपर भेदविज्ञान से और रागद्वेषादिकका