Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
{ शान्तियुधासिन्धु )
१०७
वह समझता है, कि दान पूजा आदि धार्मिक कार्य पूण्य कोको बढानेवाले हैं, और पापकर्मोको नाश करनेवाले है । इस प्रकार विचार करनेवाला जीव धार्मिक क्रियाओंमें वृद्धि करता जाता है, और पाप कर्मों का नाश करता जाता है । इस प्रकार वह पाप कर्मोसे सदा बचता रहता है. परन्तु जो जीव आत्माके यथार्थ स्वरूपको नहीं समझता अर्थात जो सम्यदष्टी नहीं है, मिथ्यादृष्टी वा तीब्रमिथ्यादृष्टी है वह अपने तीव्र मिथ्यात्लके उदयसे सदा दीन, दरिद्री, दुःस्त्री और भाग्यहीन बना रहता है । तीन मिथ्यात्वके उदयसे वह पुरुष देव, शास्त्र गुरुको भक्ति कोई देता है, दान, जा जादि पुण्यक कायाँको छोड देता है, और व्रत उपवास आदि क्रियाओंका भी त्याग कर देता है। ऐसा पुरुष इन धार्मिक क्रियाओंका त्याग कर देनसे पुण्य कर्मोका बंध नहीं कर सकता किंतु मिथ्यात्व में लीन रहने के कारण सदाकाल तीव्र पार्पोका बंध करता रहता है । इस संसारमें यह निश्चित सिद्धांत है, कि सम्यग्दर्शनके समान अन्य कोई भी परिणाम पुण्यकर्मोका बंध करनेवाला नहीं है, और मिथ्यात्वके समान अन्य कोई भी परिणाम पापोंका बंध करनेवाला नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि आत्मज्ञानसे रहित मिथ्यादृष्टि पुरुष ही सबसे अधिक पाप कर्मोका बंध करता रहता है।
प्रश्न- कृत्यं करोति शिवदं क्रमतः स कोस्ति?
अर्थ- हे स्वामिन् ! अब यह बतलानेली कृपा कीजिये कि ऐसा कौन मनुष्य है जो अनुक्रमसे मोक्ष देनेवाले कार्यको सदाकाल करता रहता है ? उत्तर - यस्तीवकर्मरिपुणा ह्यशुमेन मुक्तः,
चित्ताक्षतृप्तिकरपुण्यशतेन युक्तः । भन्यात्मभावपरिपूरणदत्तचित्तः कृत्यं स च प्रतिभवं सुखदं करोति ॥ १६५ ॥
अर्थ- जो मनुष्य तीब्र अशुभ कर्मोसे रहित होता है, इंद्रिय और मनको तृप्त करनेवाले सैकडों पुण्यकर्मोंसे सुशोभित होता है और सदाकाल अपने मनको भव्य जीवोंके होनेवाले शुभ वा शुद्ध भावोंके