Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
सकता है, और नहीं भी होता। इस प्रकार इस जीवके कभी दो ज्ञान होते हैं, और कभी तीन ज्ञान होते हैं । इस प्रकार संख्याके भेदसे उनमें भेद सिद्ध होता है । मोक्षकी प्राप्ति मनुष्य शरीरसे ही होती है । स्त्रीके शरीरसे न तो मोक्षकी प्राप्ति होती है और न सातवें नरककी प्राप्ति होती है। इस प्रकार इस जीवकी भिन्न भिन्न पर्यायोंसे भिन्नभिन्न अनेक प्रयोजन सिद्ध होते हैं । इस प्रकार प्रयोजनके भेदसे भी इनमें भेद सिद्ध होता है । इस प्रकार संज्ञा संख्या प्रयोजन आदिके भेदसे इस अखर आत्माम अनेक भेद सिद्ध होते है तथा ये सब भेद अज्ञानी वा बालकोंको समझाने के लिए कहे जाते हैं । यहांपर जो आत्माके यथार्थ स्वरूपको नहीं जानता उसेही बालक वा अज्ञानी समझना चाहिए । जो पुरुष शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माके स्वरूपको समझ लेता है, फिर वह अखंडरूपसे ही उसको ग्रहण कर लेता है । उसके लिए फिर किसी भी भेदकी आवश्यकता नहीं होती।
प्रश्न- कस्तीवपापनिचयं भुवि संचिनोति ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस संसारमें तीन पापोंका संचय कौन करता है ? उत्तर - यस्तीवकर्मवशगो नितरामभागी,
स्वर्मोक्षदं त्यजति धर्मविधि स एव । भ्रान्तिप्रदं नरकदं विषमं व्यथावं, पापं करोति सततं भुवि बोधशून्यः ॥ १६४ ॥
अर्थ- जो जीव आत्मज्ञानसे रहित होता है, तथा जो तीव्र कर्मोके वशीभूत होता है, और इसी लिए जो भाग्यहीन कहलाता है, ऐसा जो जीव स्वर्ग मोक्षके कारणभूत धार्मिक विधियोंका त्याग कर देता है, वही जीव भ्रांति उत्पन्न करनेवाले, नरकमें पहुंचानेवाले, अत्यंत विषम और महा दुःख देनेवाले पापोंको निरंतर उत्पन्न करता रहता है ।। ___भावार्थ-- जो जीव आत्माके यथार्थ स्वरूपको समझता है, अर्थात् जिसके सम्यग्दर्शन प्रगट हो गया है और इसीलिए जिसके तीव्र कर्मका उदय नहीं है, ऐसा जीव धार्मिक विधियोंको कभी नहीं छोड़ सकता ।