Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिए जन्ममरणरूप संसारको बढानेवाला इस 'मे' अक्षरका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए और न मे' इन सारभूत दो अक्षरोंको ग्रहण करना चाहिए जिससे कि आत्माको शांति प्राप्त हो ।
भावार्थ – 'मे' शब्द का अर्थ मेरा है । यह भी मेरा है, वह भी मेरा है, इस प्रकार संसारके समस्त पदार्थों को मेरा मेरा कहना ममत्व वा मोह कहलाता है । वास्तवमें देखा जाय तो इस संसारमें एक आत्मा ही अपना है। आत्माके सिवाय अन्य शरीरादिक समस्त पदार्थ पर हैं । यह जीव अपनी अज्ञानताके कारण उन परपदार्थों को भी अपना मानकर " यह शरीर मेरा है , वह पुत्र मेरा है, यह स्त्री मेरी है, यह घर मेरा है, यह सब विभूति मेरी है " इस प्रकार मेरा मेरा करता रहता है। अनादार्थको भागना स . और इसी अपराधसे वह कर्मोंके बंधनोंसे बंधा जाता है । परंतु जब इस जीवको आत्मज्ञान प्रगट हो जाता है, और उस सम्यग्दर्शनरूप आत्मजन्म अमूर्त प्रकाश में स्वपरभेदविज्ञान प्रगट हो जाता है, अर्थात् अपने परायेका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है तब यह जीव परपदार्थोंको पर ही समझने लगता है, और फिर इमे न मे सन्ति' अर्थात "ये पदार्थ मेरे नहीं हैं। इस प्रकार कहने लगता है । इसीको मोहका त्याग कहते हैं । जब यह भव्य जीव इस प्रकार मोहका त्याग कर देता है, और आत्माके सिवाय अन्य समस्त पदार्थो में " न मे" अर्थात् " ये मेरे नहीं हैं" इस प्रकारकी भावनाका चितवन करने लगता है उस समय ये समस्त विकार नष्ट हो जाते है, तथा आत्मामें अत्यंत शुद्धता प्राप्त हो जाती है। इस शुद्धताके बलसे यह जीव समस्त कर्मोको नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इससे सिद्ध होता है कि " मे " इस एक अक्षरसे यह जीव कर्मों के बंधनोंसे बँध जाता है और न मे ' इन दो अक्षरोसे यह जीव कर्मोसे छूट जाता है । इसलिए भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिए 'मे' वा ममत्वका त्याग कर देना चाहिए और न मे' इन दो अक्षरोंको ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए। इस संसारमें यही सार है, और सब असार है।
प्रश्न- स्यात्स्वात्मबंधक स्वामिन् परवस्तु न मे बद ?