Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अर्थ- जो महापुरुष सदाकाल यह विचार करता रहता है, कि मैं इस जन्म-मरणरूप संसारमें अनादिकालसे निमग्न हो रहा हं, मेरे ये पुत्र-पौत्र वा समस्त भाई बंधु आदि जितने पदार्थ हैं, वे सब मेरे आत्मासे भिन्न हैं, तथा इस संसारमें जितनी लौकिक बातें हैं वे भी सब विषम है, और महादुःख देनेवाली है, और वस्त्र, आभूषण, धन, मकान
आदि जितना परिग्रह है, वह सब निंदनीय है । इसलिए मेरा यह आत्मा इन सब पुत्र-पौत्रादिकोंसे वा भाई-बंधुओंसे, अथवा परिग्रहसे सर्वथा भिन्न है । यदि यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो यह मेरा आत्मा अत्यंत शुद्ध है और अनंत ज्ञानमय है । इस प्रकारके विचार जिसके हृदयम सदाकाल विद्यमान रहते हैं, वहीं पूज्य महापुरुष आकिंचन्य धर्मको धारण करनेवाला कहलाता है।
भावार्थ- किंचन शब्दका अर्थ 'कुछ' है, अकिंचन शब्दका अर्थ 'कुछ भी नहीं है। उस अकिंचनके भावको आकिंचन्य कहते हैं । यह आकिंचन्य धर्म आत्माका निज स्वभाव है, और यही आकिंचन्य धर्म मोक्षका कारण है । जबतक यह मनुष्य आकिंचन्य धर्मको धारण नहीं करता, तबतक वह मोक्षका पात्र कभी नहीं हो सकता। अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहोंका सर्वथा त्याग कर देना ही आकिंचन्य धर्म है । अंतरंग परिग्रहोंका त्याग करनेसे कर्मोका बंध नहीं होता तथा वाह्य परिग्रहोंका त्याग कर देनेसे किसी प्रकारकी आकुलता नहीं होती । इस प्रकार दोनों प्रकारका त्याग कर देनसें यह जीव अत्यंत शुद्ध और सर्वथा निराकुला हो जाता है, और कर्मोको नष्ट कर अनंतसुखी बन जाता है । इसलिये प्रत्येक भव्य जीवोंको इस आकिंचन्य धर्मका चितवन करते हुए राग-द्वेष वा ममत्वका त्याग कर देना चाहिये,
और इस प्रकार निराकुल होकर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिये । यही मनुष्य जन्मका सार है।
प्रश्न- कि भेदज्ञानिनश्चिन्हं वद मे विद्यते प्रभो ? ___ अर्थ- हे प्रभो! अब कृपा कर यह बतलाइए कि भेदज्ञानियोंके क्या क्या चिन्ह होते हैं ? उत्तर - भिन्नोहं कर्मणो मत्तो भिन्नं कर्मापि सर्वथा ।
नैवाहं कर्मणः कर्ता भोक्तापि परवस्तुनः॥ १४२ ॥