Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु)
पूर्वोक्तवस्तुषु सदैव नरः स्थितोपि, . .
नो बध्यते स्फटिकवद् विमलो विरागी ॥ १३९ ॥
अर्थ- यह मनु चाहे तो स्थूल वा सूक्ष्म शरीरको धारण करने के कारणोंमें रहे, चाहे संताप उत्पन्न करनेवाले उष्ण पदार्थोम रहे, अथवा शुष्क वा सूखे पदार्थोंमें रहे, और चाहे शीत पदार्थों में रहे, परंतु यदि वह राग-द्वेषसे रहित वीतराग है और स्फटिकके समान निर्मल आत्माको धारण करनेवाला है तो उस मनुष्यके कर्मोका बंध कभी नहीं होता।
भावार्थ-- कर्मोका बंध राग-द्वेषसे होता है, केवल संसारमें रहने मात्रसे कर्मोंका बंध नहीं होता। यदि यह जीव राग-द्वेष धारण करता है तो सिद्धशिलापर पहुंचने पर भी कर्मोका बंध अवश्य होता है, और यदि उसके राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है, तो संसारमें किसी स्थानपर रहनेपर भी कोका बंध नहीं कर सकता। यह निश्चित सिद्धांत है कि कर्मोका बंध राग-द्वेष आदि विकारोंसे ही होता है। जिसका आत्मा राग-द्वेषका अभाव होनेसे स्फटिकके समान निर्मल हो जाता है उसके कोका बंध कभी नहीं हो सकता ।।
प्रश्न- आकिंचन्यपदारूढः कोस्ति भूमण्डले प्रभो ?
अर्थ- हे भगवन् अब कृपाकर यह बतलाइये कि इस पृथ्वी मंडलपर आकिंचन्य पदपर कौन महापुरुष विराजमान होता है। उत्तर - पुत्रश्च पौत्राऽखिलबन्धुबर्गो, .
निजात्मवाह्यः सकलः पदार्थः । स्याल्लोकवार्ता विषमा व्यथादा, संगोपि निद्यो भवमग्नजन्तोः ॥ १४० ॥ तपश्च तेभ्योस्मि सर्वव भिन्नः शुद्धः प्रबुद्धः परमार्थतोहम् । एवं विचारो हृदि यस्य पूज्यः स एव चाकिंचनधर्मधारी ।। १४१ ॥