Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्ति सुधासिन्धु )
हूँ, न पापी हूं, न किसी वर्णका हूं, न किसी वर्णमें रहनेवाला हूं, न पशु हूं, न मनुष्य हूं, न मुझे कोई व्याधि होती है, न मेरा जन्म होता है, और न मेरी मृत्यू होती है । यह सब निदनीय कर्मोंके उदयसे होनेवाला और सदाकाल बाल, वृद्ध आदिकी भ्रांति उत्पन्न करनेवाला पर्यायोंका समूह हैं । यदि यथार्थ दृष्टिसे देखा जाय तो आत्माकी शुद्धतारूप स्वराज्यका वा मोक्षरूप स्वराज्यका में कर्त्ता हूं, और समस्त कर्म वा दोषोंसे रहित निरंजन हूं ।
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भावार्थ - यह संसारी आत्मा कर्मोके निमित्तसे चारों गतियोंमें अनेक प्रकारको पर्यायें धारण करता रहता है । कभी मनुष्य पर्यायमं उत्पन्न होकर अनेक प्रकारके शरीर धारण करता है। कभी पशु पर्याय में उत्पन्न होकर गाय, भैंस, घोडा, हाथी, भौंरा, मक्खी, लट आदि अनेक प्रकारके शरीर धारण करता है, कभी नरकमें उत्पन्न होता है, कभी स्वर्ग में देव होता है, वा देवो होता है, कभी बालक कहलाता है, कभी वृद्ध कहलाता है, कभी स्त्री कहलाता है, कभी स्वामी कहलाता है, कभी सेवक कहलाता है, कभी पापी कहलाता है। कभी धर्मात्मा कहलाता है, कभी रोगी, कभी शोक करनेवाला और जीने मरनेवाला कहलाता है । ये सब इस संसारी जीवकी वैभाविक पर्यायें हैं, और कर्मोके उदयसे हुआ करती हैं। यदि इस जीवके साथ कर्मोंका उदय न हो तो ये पर्यायें कभी उत्पन्न नहीं हो सकती इससे सिद्ध होता है, कि ये पर्याये यर्थाथमें शुद्ध जीवकी नहीं हैं, तथा मेरे आत्माका यथार्थ स्वरूप शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, और इसीलिए वह मेरा आत्मा रागद्वेषादिक समस्त विकारोंसे रहित है, समस्त कर्मोसे रहित है, और सिद्धोंके समान अत्यंत शुद्ध है । इसीलिए वह मेरा आत्मा मोक्षरूप स्वराज्यका कर्ता है, और तज्जन्य अनंत सुखका भोक्ता है । अतएव हे आत्मन् ! यदि तू अपने वास्तविक स्वरूपको देखना चाहता है, और अनंत सुखी होना चाहता है तो रागद्वेषादिक विकारोंका सर्वथा त्याग कर, आत्माकी शुद्ध अवस्था प्रगट कर और मोक्षकी प्राप्ति कर ।
प्रश्न- केन स्वात्मपदं शुद्धं प्राप्यतेऽन्विष्यते भुवि ?
अर्थ - हे भगवन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि इस संसार में