Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
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और महादुःख देनेवाले कुटुंबके मोहको सर्वथा छोड देता है । इन सबका त्यागकर जो महात्मा क्षमा, कृपा, शान्ति, दया आदि आत्माके गुणोंकी बुद्धि के लिए तथा शुद्ध आत्मासे उत्पन्न होनेवाले अनन्त सुख रूपी साम्राज्यपदको प्रगट करने के लिये.सदाकाल प्रयत्न करता है, वही महात्मा इस संसारमें यथार्थरूपमे स्वार्थी है ।
भावार्थ - अपने स्वार्थको सिद्ध करनेवाला पुरुष स्वार्थी कहलाता है । स्वार्थी पुरुष अपने काममं विघ्न करनेवालोंका त्याग कर देते हैं, और जिस प्रकार बनता है उसी प्रकार अपने कार्यकी सिद्धिमें लगे रहते हैं । यह स्वार्थ शब्द दो शब्दोंसे मिलकर बना है, स्व और अर्थ शब्द मिलकर स्वार्थ बनता है। स्व शब्दका अर्थ अपना है । अपना वा स्व शब्दसे यहापर आस्मा ग्रहण करना चाहिये और अर्थ शब्दका अर्थ, प्रयोजन है जिससे स्व अर्थात् आत्माका अर्थ अर्थात् प्रयोजन सिद्ध होता हो, उसको स्वार्थ कहते हैं । आत्माका प्रयोजन वा हित, मोक्ष प्राप्त करने में है, इसलिए मोक्ष प्राप्त कर लेना ही आत्माका यथार्थ स्वार्थ हैं, इस मोक्षकी प्राप्तिमें मन और इंद्रियोंके विषय विघ्न करनेवाले है, कषायोंका समूह विघ्न करनेवाला है, मायाचारीसे उत्पन्न होनेवाले मलिन परिणाम विघ्न करनेवाले हैं, और कुटुंबका मोह विघ्न करनेवाला हैं, इसलिए आत्माका हित करनेवाला यथार्थ स्वार्थी पुरुष सबसे पहले इंद्रिय और मनके विषयों का त्याग करता है, क्रोधादिक समस्त कषायोंका त्याग करता है, मायाचारीका त्याग कर, आत्माको निर्मल बनाता है, और कुटुंबके मोहका त्याग कर आत्माको अत्यंत शांत बना लेता है । इस प्रकार इन सबका त्याग कर देने से क्षमा कृपा शांति, दया, आदि आत्माके गण अपने-आप प्रगट हो जाते हैं। इन गुणोंके प्रगट होने से उसे आत्माका यथार्थ स्वरूप प्रगट हो जाता है, अपने आत्माम रहनेवाले अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत मुख और अनंत वीर्यका ज्ञान हो जाता है, और फिर उस अनंत जान वा अनत मुखको प्राप्त करनेके लिए ध्यान वा तपश्चरण करने लगता है। धीरे-धीरे उस तपश्चरण और ध्यानसे समस्त कर्मोको नष्ट कर देता है, और मोक्षरूप अपने आत्माकी निधिको प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार अपनी निजकी निधिको प्राप्त कर लेना ही सबसे बड़कर और