Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
संजायते चैरविरोधभावो, ज्ञात्वेति संयोगभवं च दोषं । त्यक्त्यान्यसंग मदकारकं वा,
भव्या भवेथुविमला विसंगाः ॥ १४६ ॥
अर्थ - इस संसारमें जितने स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई आदि सगे संबंधी हैं वे सब क्रोधादिक कषायोंको बढ़ानेवाले हैं, और हृदयमें कलुषता उत्पन्न करने वाले हैं इसीलिए इनके संयोगसे हृदयमें विकार उत्पन्न होता है, अपने आत्मजन्य आनंदको हरण करनेवाली, विषयोंकी अभिलाषा बढती है, अनेक प्रकारकी चिंताएं बढ़ती हैं, और अनेक जीवोंके साथ वैर-विरोध बढ़ता है। इस प्रकार पुत्र मित्रादिकके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले दोषों को समझकर भव्य जीवोंको मद उत्पन्न करनेवाले समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देना चाहिए, और समस्त परिग्रहसे रहित होकर अपने आत्माको निर्मल बना लेना चाहिए ।
भावार्थ - स्त्री-पुत्र आदि कुटुंबी लोगोंके संबंधसे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। प्रथम तो उनके लिए कमाना पड़ता है, जिसमें अनेक प्रकारके बहुतसे जीवोंकी हिसा होती है, परंतु उस हिंसाजन्य पापका फल स्वयं भोगना पड़ता है, नरक-निगोदादिक दुर्गतियोंमें ले जानेवाले पाप इस कुटुंबके लिए ही करने पड़ते हैं। यदि कुटुंबका ममत्व छुट जाय तो यह आत्मा बहुत शीन अपना कल्याण कर सकता है। इस कुटुम्बके ही निमित्तसे यह जीव क्रोध करता है, मान करता है, मायाचारी करता है, लोभ करता है, हृदयमें कलषता उत्पन्न करता है। और अनेक प्रकारके कामादिक विकार उत्पन्न करता है । इस कुटुम्बके ही लिए अनेक प्रकारकी चिंताएं करता है. और अनेक जीवोंके साथ वैर-विरोध करता है । कहां तक कहा जाय, इस संसार में जितने पाप हैं, वे सब इस कुटम्बके ही लिए किये जाते हैं, और जितने दुःख हैं वे सब इस कुटुम्बके ही लिए भोगे जाते है । इस प्रकार यह कुटुम्बका सम्बन्ध सब प्रकारसे दुःख देनेवाला है। यही समझकर भव्य जीवोंको कुटुम्बके मोहका त्याग कर देना चाहिये । और फिर इसका सर्वथा त्याग कर तथा भगवती जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर, आत्मकल्याण कर लेना चाहिये । यही इस संसारमें सार है।