Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
वह न तो मकान बना सकता है, न भोजन बना सकता है, और न अन्य पौद्गलिक पदार्थोंको बना सकता है । पौद्गलिक पदार्थोको पौद्गलिक शरीर ही बनाता है । यदि यह अमूर्त आत्मा कुछ कर सकता है, तो अपने शुद्ध भावोंको ही उत्पन्न कर सकता है, इसके सिवाय और कुछ नहीं कर सकता। यही कारण है, कि जबतक यह आत्मा परपदा को अपनाता रहता है, अपने आत्माको उन परपदार्थोका कर्ता वा भोक्ता मानता रहता है, तबतक पंचपरावर्तनरूप संसारमें ही परिभ्रमण किया करता है, तथा मोक्षमार्गसे दूर हटता जाता है । परंतु जब यह आत्मा परपदार्थोसे अपने ममत्वको त्याग देता है, और अपने आत्माको किमीका कर्ता-भोक्ता न मानकर केवल अपने आत्माके शुद्धभावोंका ही कर्ता-भोक्ता मान लेता है, और फिर उन्हीं भावोंमें लीन बना रहता है, तभी यह आत्मा संसारको नष्ट कर, मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इसलिये परपदार्थोसे ममत्वको त्याग कर देना प्रत्येक भव्यजीवका कर्तव्य है।
प्रश्न- कर्ताकर्मक्रियादिः क्व तत्वाद् घटते मे वद ?
अर्थ-- हे भगवन् ! कृपाकर यह बतलाइये कि यथार्थ रीतिसे कर्ता, कर्म, और क्रियाएं कहां संघटित होती हैं ? उत्तर - कर्ताकर्मक्रियादिः को स्वद्रव्ये घटते सदा ।
स्वात्मबाह्ये परे नवाधाराधेयदिजिते ॥ १४९ ॥ वस्तुतो विद्यते चवं ततापि व्यवहारतः। कर्ताकर्मक्रियादिश्च घटते परवस्तुनि ॥ १५० ।। किन्तु तेनात्मसिद्धिर्न ज्ञात्येति निजवस्तुनि । कर्ताकर्मक्रियाविश्च मन्यन्ते मुनिसत्तमाः ॥ १५१ ॥
अर्थ-- कर्ता, कर्म, और क्रिया ये तीनों ही अपने निज द्रव्पमें संघटित होती हैं, अपने निज द्रव्यके सिवाय अन्य किसी पदार्थमें संघटित नहीं हो सकती । इसका भी कारण यह है, कि किसी एक द्रव्यकी किसी दूसरे द्रव्यके साथ आधाराधेय कल्पना नहीं हो सकती । यद्यपि वस्तुका स्वभाव यही है, तथापि व्यवहारनयसे कर्ता, कर्म, क्रिया ये