Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
७८
(शान्तिसुधासिन्धु )
समागमसे आत्माका कल्याण बहुत शीघ्र होता है । तत्त्वज्ञान बढता है । और व्रत उपवासको धारण कर या जप-तपके द्वारा यह आत्मा अपना कल्याण कर लेता है। इसलिए चातुर्मासके दिनों में श्रावकोंको प्रायः ऐसे ही स्थानोंमें रहना चाहिए जहां किसी मुनिराजने वर्षायोग धारण किया हो, ऐसा करनेसे उनका व्यापार आदि जीविकाके साधन अपने आप कम हो जाते हैं । चातुर्मासके सिवाय शेष आठ महीनोंमें मुनिराज भी विहार किया करते हैं। इसलिए श्रावकोंको उनके साथ रहने में कठिनता भी होती है । और फिर जीविकाका साधन भी करना पड़ता है। इसलिए आठ महीन व्यापार आदि जीविकार साधनमें लगे रहना चाहिए । यदि इन दिनोंमें भी कोई मुनिराज वा अन्य त्यागीवर्ग अपने 'स्थानपर आवें तो फिर उनकी सेवामें लग जाना चाहिए और जितनी बन सके उतनी उनकी भक्ती-सेबा करनी चाहिए । यही श्राबकोंका कर्तव्य है । केवल खाने-पीने के काममें बा कमानेके काममें बारहों महीने लगे रहना मनुष्योंका कर्तव्य नहीं है । प्रश्न- सन्ताडिताश्च सततं खलभूतवर्ग:
ध्यानाच्चलन्ति न चला वरसाधुवर्गाः ? अर्थ - हे स्वामिन् ! अब कृपा कर यह बतलाइए कि दृष्ट लोग वा भूत पिशाच्च आदि व्यंतर देव जब किसी उत्तम साधुको दुःख देते हैं, ताडन करते हैं वा मारते हैं तो उस समय वे साधु अपने ध्यानसे चलायमान हो जाते हैं वा नहीं ? उसर - सन्तोषशांतिजनका ननु संगमुक्ता
स्वोक्षमार्गनिरता विषयाद्विरक्ताः । स्यावावरीतिरसिकाः परमार्थपुष्टाः घोरोपसर्गजयिनः समतासमुद्राः ॥ १२१ ।। संसारतापशमकाश्च निजात्मनिष्ठाः संतारकाश्च सुखदाः परमाः पवित्राः स्वानन्वतृप्तमुनयो निजभाक्लीनाः व्याघ्राहिसिंहपशुभिः शठधूर्त्तवर्गः ॥ १२२ ॥