Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
अस्तोह लोके विषयाभिलाषी, तस्यानभावन विभूषणेन ॥ ८६ ॥ निश्चीयते ह्येव सरागतापि, प्रवेषता शत्रुविधातनेन। ततो प्रमुक्त्येति किलान्यदेवं,
गृण्हाति लोको जिनपं स्वसिद्धये ॥ ८७ ॥ (इयं प्रसिद्धा प्रबलास्ति रीतिः, 'यादग्धनं यस्य भवेत्स्वपार्वे । तादृग्धनं बीयत एव तेन, गृण्हाति जोवापि यतामिलाषः ॥८८॥ .
अर्थ- भगवान् जिनेन्द्रदेव समस्त दोषरूपी कलंकोसे रहित हैं। एसे भगवान जिनेन्द्रदेवको छोड कर अन्य जितने देव है वे सब दोषोंको धारण करनेवाले हैं और सब विषयाभिलाषी हैं। उनके हावभाव और आभूषणोंसे उनमें राग होने का भी निश्चय होता है और शत्रुओंका घात करनेसे द्वेष होनेका भी निश्चय होता है । इसीलिए विचारवान श्रावक अपने आत्माकी सिद्धिके लिए अन्य समस्त देवोंका त्याग कर देते हैं और भगवान जिनेन्द्रदेवको ग्रहण करते हैं । संसारमें यह प्रसिद्ध और प्रबल रीति है कि जिसके पास जैसा धन होता है वह उसी धनको दुसरोंके लिए दे सकता है तथा ये जीव भी अपनी-अपनी इच्छानुसार ले जाते है।
भावार्थ- इस संसारमें भगवान जिनेन्द्रदेवको छोड़कर बाकीके जितने देव है वे सब विषयाभिलाषी हैं और राग द्वेष आदि समस्त दोषोंसे भरपुर हैं। महादेवको देखो तो वे अपने आधे शरीरमें भवानीपार्वतीको बिठाये हये हैं और राग त्रिशूल उनके हाथ में है तथा सवारीके लिए बैल भी उनके पास है । ये सब साधन विषयोंकी अभिलाषा और राग द्वेषको सिद्ध करते हैं । इसी प्रकार विष्णु भी राधिकाके साथ रहते हैं, चक्र गदा आदि शस्त्रोंको रखते हैं और सबारीको गरुड रखते हैं, ये सब साधन भी विषयोंकी अभिलाषा और द्वेषको सिद्ध करते हैं।