Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
अर्थ- हे स्वामिन्! अब यह बतलाने की कृपा कीजिये कि यतिपना क्या है और वह किस कारणसे प्राप्त होता है ? उत्तर - स्वर्मोक्षमार्गपतनात्सुखदं यतित्वं, बाह्यादिसंगमलमोचन तो मुनित्वं । स्वानन्दसिंधुगमनेन भवेद् ऋषित्वमिष्टार्थसाधनत एव च साधुतापि ॥ ९३ ॥ मोहात्मभेदकरणात्परमकृतित्वं, चित्ताक्षसंयमनतो वरसंयमित्वम् । ब्रह्मव्रतं रमणतोस्ति निजात्मसौख्ये,
नाम्ना न लिंगग्रहणाद्भुवने यतित्वम् ॥ ९४ ॥
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अर्थ- जो स्वर्ग और मोक्षके मार्ग में सदाकाल प्रयत्न करते रहते हैं वे सुख देनेवाले यति कहलाते हैं, अन्तरंग और बाह्य परिग्रह के मलका सर्वथा त्याग कर देनेसे मुनि कहलाते हैं, अपने शुद्धात्मजन्य महासागर में गमन करने से ऋषि कहलाते हैं, मोक्ष रूप अपने इष्टको सिद्ध करनेके कारण साधु कहलाते हैं। मोह और आत्माको भिन्न करनेके कारण साधु परमकृती कहलाते हैं, मन और इन्द्रियोंका निग्रह करनेके कारण संयमी कहलाते हैं और ब्रह्मव्रतमें लीन होने के कारण अपने आत्मजन्य अनन्तसुख में निमग्न रहते हैं । इस प्रकार अपने अपने गुणोंसे यति आदि कहलाते हैं । केवल नाम रख लेने अथवा लिग धारण कर लेनेसे यति आदि नहीं कहलाते ।
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भावार्थ- ऋषि, मुनि, यति, साधु, केवल नामसे वा वेष धारण करलेने से नहीं कहलाते किंतु अपने अपने कर्तव्यों कहलाते हैं । यति शब्दका अर्थ यत्न करनेवाला है । जो मुनि मोक्ष प्राप्त करनेके लिए वा मोक्षमार्ग में चलनेकेलिए सदाकाल प्रयत्न करते हैं वे ही घति कहलाते हैं । जो अन्तरंग बहिरंगपरिग्रहका सर्वथा त्याग कर देते हैं उनको मुनि कहते हैं। आत्माकी अत्यन्त शुद्धता के कारण जिन्हे ऋद्धियां प्राप्त होजाती हैं, इसीलिए जो आत्मजन्य सुखकेसा गरमें रात दिन विहार किया करते हैं उनको ऋषि कहते हैं, जो मोक्षके सिद्ध करने में लगे रहते है, उनको साधु कहते हैं । जो मोहको नाश कर अपने शुद्ध